Social Development in Infancy (शैशवावस्था में सामाजिक विकास)

Social Development in Infancy / शैशवावस्था में सामाजिक विकास

मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि जन्म के समय शिशु बड़ा ही आत्मकेंद्रित तथा असहाय होता है। जैसे-जैसे वह सामाजिक परिवेश के संपर्क में आता है उसका आत्मकेंद्रित व्यवहार समाप्त होता जाता है।

क्रो एंड क्रो ने लिखा है– जन्म के समय शिशु ना तो सामाजिक प्राणी होता है और ना ही असामाजिक। पर वह इस स्थिति में अधिक समय तक नहीं रहता है।

हरलॉक द्वारा प्रस्तुत शिशु के सामाजिक विकास की सारणी:

क्रमांकआयु-माहसामाजिक व्यवहार का रूप
 प्रथम माहध्वनियों में अंतर समझना
 द्वितीय माहमानव ध्वनि पहचानना, मुस्कराकर स्वागत करना
 तृतीय माहमाता के लिए प्रसन्नता एवं माता के अभाव में दुखी होना
 चतुर्थ माहपरिवार के सदस्यों को पहचानना
 पंचम माहप्रसन्नता एवं क्रोध में प्रतिक्रिया व्यक्त करना
 छठा माहपरिचितों से प्यार एवं अन्य लोगों से भयभीत होना
 सातवां माहअनुकरण के द्वारा हावभाव को सीखना
 आठवां माहहावभाव के द्वारा विभिन्न संवेगों (प्रसन्नता, क्रोध एवं भय का प्रदर्शन करना)
 नवां माहहावभाव के द्वारा विभिन्न संवेगों (प्रसन्नता, क्रोध एवं भय का प्रदर्शन करना)
 दसवां माहप्रतिछाया के साथ खेलना, नकारात्मक विकास
 ग्यारहवां माहप्रतिछाया के साथ खेलना, नकारात्मक विकास
 1 साल और इसके बादबड़ों के कार्यों का अनुसरण करना, उनकी मदद करना, सहयोग और सहानुभूति का प्रदर्शन करना.

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तृतीय वर्ष तक बालक आत्मकेंद्रित रहता है। वह अपने लिए ही कार्य करता है, अन्य किसी के लिए नहीं। जब वह विद्यालय में दो या अधिक बालकों के साथ होता है तो उसमें सामाजिकता के भाव का विकास होना शुरू होता है। इस प्रकार से चतुर्थ वर्ष के समाप्त होने तक बालक बहिर्मुखी व्यक्तित्व को धारण करना प्रारंभ कर देता है।

शैशवावस्था के अंतिम वर्षों में शिशु का व्यवहार परिवार से वाह्य परिवेश की ओर प्रस्तुत होता है।

हरलॉक के अनुसार-  शिशु दूसरे बच्चों के सामूहिक जीवन से समायोजन स्थापित करना, उनसे वस्तु विनिमय करना, और खेल के साथियों को अपनी वस्तुओं में साझीदार बनाना सीख जाता है। वह जिस समूह का सदस्य होता है उसके द्वारा स्वीकृत या प्रचलित प्रतिमान के अनुसार स्वयं को ढालने की चेष्टा करता है।

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