Shringar Ras/ श्रृंगार रस: परिभाषा, भाव, आलम्बन, उद्दीपन, और उदाहरण/ Shringar Ras: Definition and Example in Hindi
श्रृंगार रस की परिभाषा (Definition of Shringar Ras in Hindi)
जब नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस की अवस्था में पहुंचकर आस्वादन के योग्य हो जाता है, तो उसे श्रृंगार रस कहते हैं.
श्रृंगार रस (Shringar Ras) में नायक-नायिका के सौन्दर्य तथा प्रेम-संबंधों का वर्णन किया जाता है. श्रृंगार रस को रसराज या रसपति भी कहा जाता है. इसका स्थायी भाव रति या प्रेम है. प्रेम का वर्णन “श्रृंगार रस” के अंतर्गत आता है. नायक नायिका के प्रेम वर्णन के अतिरिक्त श्रृंगार रस के अंतर्गत सौन्दर्य, प्रकृति, सुन्दर वन, वसंत ऋतु, पक्षियों का चहचहाना आदि के बारे में वर्णन किया जाता है।
श्रृंगार का स्थायी भाव: प्रेम
आलम्बन: नायक और नायिका
उद्दीपन: वसंत ऋतु, प्राकृतिक सौन्दर्य, चाँदनी रात, गीत-संगीत, वाटिका इत्यादि
अनुभाव: संयोग- मुख खिलना, मुस्कराना, एकटक देखना, हाव-भाव, मधुरालाप इत्यादि.
वियोग- रुदन, क्रंदन, विलाप, प्रलाप, निःश्वास इत्यादि.
श्रृंगार रस के भेद / श्रृंगार रस के प्रकार (Types of Shringar Ras in Hindi)
श्रृंगार रस के दो प्रकार हैं:
- संयोग श्रृंगार: जब नायक और नायिका साथ हों
- वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार: जब नायक और नायिका एक दूसरे से दूर हों
संयोग श्रृंगार रस (Sanyog Shringar Ras)
जब नायक और नायिका के परस्पर मिलन, स्पर्श, आलिंगन, वार्तालाप आदि का वर्णन होता है तब वहां पर संयोग श्रृंगार रस होता है। इसके अंतर्गत नायिका की खूबसूरती और भाव-भंगिमाओं तथा नायक के उसके प्रति अनुराग का वर्णन होता है.
संयोग श्रृंगार का उदाहरण (Example of Sanyog Shringar Ras in Hindi)
1. “करत बतकही अनुज सन, मन सियरूप लुभान
मुखसरोज मकरन्द छबि कर मधुप इव पान” – रामचरितमानस
2. “बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ॥” – बिहारीलाल
वियोग श्रृंगार रस (Viyog Shringar Ras)
जहां पर नायक और नायिका के बीच परस्पर प्रबल प्रेम होता है लेकिन कदाचित कारणों से मिलन संभव नहीं होता अर्थात नायक-नायिका के वियोग का वर्णन होता है वहां पर वियोग श्रृंगार रस होता है। वियोग श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति होता है.
वियोग श्रृंगार का उदाहरण (Example of Viyog Shringar Ras in Hindi)
1. “मनमोहन तें बिछुरि जब सो तन आँसून सों सदा धोवति है
हरिश्चंद्र जू प्रेम की फंद परी कुल की कुललाजहिं खोवति है
दुःख के दिन को कोऊ भाँति बितै बिरहागम रैन संजोवति है
हम ही अपुनि दसा जानैं सखी निसि सोवती है किधौ रोवति है” – भारतेंदु हरिश्चंद्र
2. “निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
‘सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥” – सूरदास
श्रृंगार रस के अन्य प्रमुख उदाहरण
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई॥
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।।
छांडि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई।।
मन की मन ही माँझ रही
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाही परत कही
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही
अब इन जोग संदेशनि, सुनि-सुनि बिरहिनी बिरह दही।
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनु हँसे , दैन कहै , नटि जाय।।
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत हैं, नैननु ही सों बात॥”
यह तन जारों छार कै कहों कि पवन उड़ाउ
मकु तेहि मारग होइ परों कंत धरै वहं पाउ।
के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास। ।
दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं॥
एक पल ,मेरे प्रिया के दृग पलक
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे ।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय संबन्ध था ।।
मैं निज अलिंद में खड़ी थी सखि एक रात
रिमझिम बूदें पड़ती थी घटा छाई थी ।
गमक रही थी केतकी की गंध चारों ओर
झिल्ली झनकार यही मेरे मन भायी थी।
अति मलीन वृषभानुकुमारी।
हरि स्त्रम जल भीज्यौ उर अंचल, तिहिं लालच न धुवावति सारी।।
अध मुख रहति अनत नहिं चितवति, ज्यौ गथ हारे थकित जुवारी।
छूटे चिकुरे बदन कुम्हिलाने, ज्यौ नलिनी हिमकर की मारी।।
हरि सँदेस सुनि सहज मृतक भइ, इक विरहिनि, दूजे अलि जारी।‘
सूरदास’ कैसै करि जीवै, व्रजवनिता बिन स्याम दुखारी॥”
रस की परिभाषा, उदाहरण और रस के प्रकार
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- करुण रस (Karun Ras in Hindi)
- वीर रस (Veer Ras in Hindi)
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रस के स्थायी भाव और मनोविज्ञान
प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव और कुछ मूल प्रवृतियां होती हैं
मन:संवेग | रस के नाम | स्थायी भाव | मूल प्रवृतियाँ | |
---|---|---|---|---|
1 | काम | श्रृंगार | प्रेम | काम-प्रवृति (sex) |
2 | हास | हास्य | हास | आमोद (laughter) |
3 | करुणा (दुःख) | करुण | शोक | शरणागति (self-submission) |
4 | उत्साह | वीर | उत्साह | अधिकार-भावना (acquisition) |
5 | क्रोध | रौद्र | क्रोध | युयुत्सा (combat) |
6 | भय | भयानक | भय | पलायन (escape) |
7 | घृणा | वीभत्स | जुगुप्सा | निवृति (repulsion) |
8 | आश्चर्य | अद्-भुत | विस्मय | कुतूहल (curiosity) |
9 | दैन्य | शांत | निर्वेद (शम) | आत्महीनता (appeal) |
10 | वत्सलता | वात्सल्य | स्नेह, वात्सल्य | मातृभावना (parental) |
11 | भगवद्-अनुरक्ति | भक्ति | अनुराग | भक्ति-भावना (allocation spirit) |
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