Tum manini radhe Kavita, तुम मानिनि राधे सुभद्रा कुमारी चौहान (subhadra kumari chauhan) द्वारा लिखित कविता है.
थी मेरा आदर्श बालपन से तुम मानिनि राधे!
तुम-सी बन जाने को मैंने व्रत नियमादिक साधे॥
अपने को माना करती थी मैं बृषभानु-किशोरी।
भाव-गगन के कृष्ण-चन्द्र की थी मैं चतुर चकोरी॥
था छोटा-सा गाँव हमारा छोटी-छोटी गलियाँ।
गोकुल उसे समझती थी मैं गोपी सँग की अलियाँ॥
कुटियों में रहती थी, पर मैं उन्हें मानती कुंजें।
माधव का संदेश समझती सुन मधुकर की गुंजें॥
बचपन गया, नया रँग आया और मिला वह प्यारा।
मैं राधा बन गई, न था वह कृष्णचन्द्र से न्यारा॥
Tum manini radhe Kavita
किन्तु कृष्ण यह कभी किसी पर ज़रा प्रेम दिखलाता।
नख सिख से मैं जल उठती हूँ खानपान नहिं भाता॥
खूनी भाव उठें उसके प्रति जो हो प्रिय का प्यारा।
उसके लिये हृदय यह मेरा बन जाता हत्यारा॥
मुझे बता दो मानिनि राधे! प्रीति-रीति यह न्यारी।
क्योंकर थी उस मनमोहन पर अविचल भक्ति तुम्हारी?
तुम्हें छोड़कर बन बैठे जो मथुरा-नगर-निवासी।
कर कितने ही ब्याह, हुए जो सुख सौभाग्य-विलासी॥
सुनती उनके गुण-गुण को ही उनको ही गाती थी।
उन्हंे यादकर सब कुछ भूली उन पर बलि जाती थी॥
नयनों के मृदु फूल चढ़ाती मानस की मूरत पर।
रही ठगी-सी जीवन भर उस क्रूर श्याम-सूरत पर।
Tum manini radhe Kavita
श्यामा कहलाकर, हो बैठी बिना दाम की चेरी।
मृदुल उमंगों की तानें थी- तू मेरा, मैं तेरी॥
जीवन का न्योछावर हा हा! तुच्द उन्होंने लेखा।
गये, सदा के लिए गये फिर कभी न मुड़कर देखा॥
अटल प्रेम फिर भी कैसे है कह दो राजधानी!
कह दो मुझे, जली जाती हूँ, छोड़ो शीतल पानी॥
किन्तु बदलते भाव न मेरे शान्ति नहीं पाती हूँ॥
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