Sujan Raskhan Part-3 / कृष्ण भक्तिकाल के प्रमुख कवि रसखान की प्रमुख रचना सुजान-रसखान के पद, सवैया, कवित्त, और दोहे (भाग-3)
101. सवैया
आज महूं दधि बेचन जात ही मोहन रोकि लियौ मग आयौ।
माँगत दान में आन लियौ सु कियो निलजी रस जोवन खायौ।।
काह कहूँ सिगरी री बिथा रसखानि लियौ हँसि के मुसकायौ।
पाले परी मैं अकेली लली, लला लाज लियो सु कियौ मनभायौ।।101।
102. सवैया
पहलें दधि लैं गई गोकुल में चख चारि भए नटनागर पै।
रसखानि करी उनि मैनमई कहैं दान दे दान खरे अर पै।।
नख तें सिख नील निचोल पलेटे सखी सम भाँति कँपे र पै।।
मनौ दामिनि सावन के घन में निकसे नहीं भीतर ही तरपै।।102।।
103. सवैया
दानी नए भए माँगत दान सुने जु है कंस तौ बाँधे न जैहौ।
रोकत हौं बन में रसखानि पसारत हाथ महा दुख पैहो।
टूटें छरा बछरादिक गोधन जो धन है सु सबै पुनि रेहौ।
जै है जो भूषन काहू तिया को तो मौल छलाके लला न बिकैहौ।।103।।
104. सवैया
छीर जौ चाहत चीर गहैं एजू लेउ न केतिक छीर अचैहौ।
चाखन के मिस माखन माँगत खाउ न माखन केतिक खैहौ।
जानति हौं जिय की रसखानि सु काहे कौ एतिक बात बढ़ैहौ।
गोरस के मिस जो रस चाहत सो रस कान्हजू नेकु न पैहौ।।104।।
105. सवैया
लंगर छैलहि गोकुल मैं मग रोकत संग सखा ढिंग तै हैं।
जाहि न ताहि दिखावत आँखि सु कौन गई अब तोसों करे हैं।
हाँसीं में हार हट्यौ रसखानि जु जौं कहूँ नेकु तगा टुटि जै हैं।
एकहि मोती के मोल लला सिगरे ब्रज हाटहि हाट बिकै हैं।।105।।
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106. सवैया
काहू को माखन चाखि गयौ अरु काहू को दूध दही ढरकायौ।
काहू को चीर लै रूप चढ़्यौ अरु काहू को गुंजछरा छहरायौ।
मानै नही बरजें रसखानि सु जानियै राज इन्हैं घर आयौ।
आवरी बूझैं जसोमति सों यह छोहरा जायौ कि मेव मंगायौ।।106।।
107. कवित्त
दूध दुह्यौ सीरो पर्यौ तातो न जमायौ कर्यौ,
जामन दयौ सो धर्यौ, धर्यौई खटाइगौ।
आन हाथ आन पाइ सबही के तब ही तें,
जब ही तें रसखानि ताननि सुनाइगौ।
ज्यौं ही नर त्यौंहों नारी तैसीयै तरुन बारी,
कहिये कहा री सब ब्रिज बिललाइगौ।
जानियै न माली यह छोहरा जसोमति को,
बाँसुरी बजाइ गौ कि विष बगराइगौ।।107।। Sujan Raskhan Part-3
108. कवित्त
जल की न घट भरैं मग की न पग धरैं,
घर की न कछु करैं बैठी भरैं साँसुरी।
एकै सुनि लोट गईं एकै लोट-पोट भईं,
एकनि के दृगनि निकसि आग आँसु री।
कहै रसखानि सो सबै ब्रज बनिता वधि,
बधिक कहाय हाय भ्ई कुल हाँसु री।
करियै उपायै बाँस डारियै कटाय,
नाहिं उपजैगौ बाँस नाहिं बाजे फेरि बाँसुरी।।108।।
109. सवैया
चंद सों आनन मैन-मनोहर बैन मनोहर मोहत हौं मन
बंक बिलोकनि लोट भई रसखानि हियो हित दाहत हौं तन।
मैं तब तैं कुलकानि की मैंड़ नखी जु सखी अब डोलत हों बन।
बेनु बजावत आवत है नित मेरी गली ब्रजराज को मोहन।।109।।
110. सवैया
बाँकी बिलोकनि रंगभरी रसखानि खरी मुसकानि सुहाई।
बोलत बोल अमीनिधि चैन महारस-ऐन सुनै सुखदाई।।
सजनी पुर-बीथिन मैं पिय-गोहन लागी फिरैं जित ही तित धाई।
बाँसुरी टेरि सुनाइ अली अपनाइ लई ब्रजराज कन्हाई।।110।।
111. सवैया
डोरि लियौ मन मोरि लियो चित जोह लियौ हित तोरि कै कानन।
कुंजनि तें निकस्यौ सजनी मुसकाइ कह्यो वह सुंदर आनन।।
हों रसखानि भई रसमत्त सखी सुनि के कल बाँसुरी कानन।
मत्त भई बन बीथिन डोलति मानति काहू की नेकु न आनन।।111।।
112. सवैया
मेरो सुभाव चितैबे को माइ री लाल निहारि कै बंसी बजाई।
वा दिन तें मोहि लागी ठगौरी सी लोग कहैं कोई बाबरी आई।।
यौं रसखानि घिर्यौ सिगरो ब्रज जानत वे कि मेरो जियराई।
जौं कोउ चाहै भलौ अपने तौ सनेह न काहू सों कीजियौ माई।।112।।
113. सवैया
मोहन की मुरली सुनिकै वह बौरि ह्वै आनि अटा चढ़ि झाँकी।
गोप बड़ेन की डीठि बचाई कै डीठि सों डीठिं मिली दुहुं झांकी।
देखत मोल भयौ अंखियान को को करै लाज कुटुंब पिता की।
कैसे छुटाइै छुटै अंटकी रसखानि दुहुं की बिलौकनि बाँकी।।113।। Sujan Raskhan Part-3
114. सवैया
बंसी बजावत आनि कढ़ौ सो गली मैं अली! कछु टोना सौ डारे।
हेरि चिते, तिरछी करि दृष्टि चलौ गयौ मोहन मूठि सी मारे।।
ताही घरी सों परी धरी सेज पै प्यारी न बोलति प्रानहूं वारे।
राधिका जी है तो जी हैं सबे नतो पीहैं हलाहल नंद के द्वारे।।114।।
115. सवैया
कर काननि कुंडल मोरपखा उर पै बनमाल बिराजति है।
मुरलीकर मैं अधरा मुसकानि-तरंग महा छबि छाजति है।
रसखानि लखें तन पीत पटा सत दामिनि सी दुति लाजति है।
वहि बाँसुरी की धुनि कान परे कुलकानि हियो तजि भाजति है।।115।।
116. सवैया
काल्हि भटू मुरली-धुनि में रसखानि लियौ कहुं नाम हमारौ।
ता छिन ते भई बैरिनि सास कितौ कियौ झाँकन देति न द्वारौ।
होत चवाव बलाई सों आलो जो भरि शाँखिन भेटिये प्यारौ।
बाट परी अब री ठिठक्यो हियरे अटक्यौ पियरे पटवारौ।।116।।
117. सवैया
आज भटू इक गोपबधू भई बावरी नेकु न अंग सम्हारै।
माई सु धाइ कै टौना सो ढूँढ़ति सास सयानी-सवानी पुकारै।
यौं रसखानि घिरौ सिगरौ ब्रज आन को आन उपाय बिचारै।
कोउ न कान्हर के कर ते वहि बैरिनि बाँसरिया गाहि जारै।।117।।
118. सवैया
कान्ह भये बस बाँसुरी के, अब कौन सखी हमको चहिहै।
निसि द्यौस रहे यह आस लगी, यह सौतिन सांसत को सहिहै।
जिन मोहि लियो मनमोहन को, ‘रसखानि’ सु क्यों न हमैं दहिहै।
मिलि आवो सबै कहुं भाग चलैं, अब तो ब्रज में बाँसुरी रहिहै।।118।।
(भये=हो गए, बस=वश में, चहिहै=चाहेगा,प्यार करेगा, निसि द्यौस=
रात-दिन, सौतिन सांसत=सौत प्रति ईर्ष्या, सहिहै=सहना,बर्दाश्त करना,
मोहि लियो=वश में कर लिया, दहिहै=आग लगाना, मिलि=मिलकर,
कहुं=कहीं और,ब्रज छोड़ कर, बाँसुरी रहिहै=बांसुरी ही रहेगी)
119. सवैया
ब्रज की बनिता सब घेरि कहैं, तेरो ढारो बिगारो कहा कस री।
अरी तू हमको जम काल भई नैक कान्ह इही तौ कहा रस री।।
रसखानि भली विधि आनि बनी बसिबो नहीं देत दिसा दस री।
हम तो ब्रज को बसिबोई तजौ बस री ब्रज बेरिन तू बस री।।119।।
120. सवैया
बजी है बजी रसखानि बजी सुनिकै अब गोपकुमारी न जीहै।
न जीहै कोऊ जो कदाचित कामिनी कान मैं बाकी जु तान कु पी है।।
कुपी है विदेस संदेस न पावति मेरी डब देह को मौन सजी है।
सजी है तै मेरो कहा बस है सुतौ बैरिनि बाँसुरी फेरि बजी है।।120।। Sujan Raskhan Part-3
121. सवैया
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माला गरें पहिरौंगी।
ओढ़ि पितंबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।।
भाव तो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहें सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरीं अधरा न धरौंगी।।121।
122. कवित्त
आपनो सो ढोटा हम सब ही को जानत हैं,
दोऊ प्रानी सब ही के काज नित धावहीं।
ते तौ रसखानि जब दूर तें तमासो देखैं,
तरनितनूजा के निकट नहिं आवहीं
आन दिन बात अनहितुन सों कहौं कहा,
हितू जेऊ आए ते ये लोचन रावहीं।
कहा कहौं आली खाली देत सग ठाली पर,
मेरे बनमाली कों न काली तें छुरावहीं।।122।।
123. सवैया
लोग कहैं ब्रज के सिगरे रसखानि अनंदित नंद जसोमति जू पर।
छोहरा आजु नयो जनम्यौ तुम सो कोऊ भाग भरयौ नहिं भू पर।
वारि कै दाम सँवार करौ अपने अपचाल कुचाल ललू पर।
नाचत रावरो लाल गुजाल सो काल सों व्याल-कपाल के ऊपर।।123।।
124. सवैया
एक समै जमुना-जल मैं सब मज्जन हेत धसीं ब्रज-गोरी।
त्यौं रसखानि गयौ मनमोहन लै कर चीर कदंब की छोरी।।
न्हाइ जबै निकसी बनिता चहुँ ओर चितै चित रोष करो री।
हार हियें भरि भावन सों पट दीने लला बचनामृत धोरी।।124।।
125. सवैया
प्रान वही जू रहैं रिझि वा पर रूप वही जिहि वाहि रिझायौ।
सीस वही जिन वे परसे पर अंक वही जिन वा परसायौ।।
दूध वही जु दुहायौ री वाही दही सु सही जु वही ढरकायौ।
और कहाँ लौं कहौं रसखानि री भाव वही जु वही मन भायौ।।125।।
126. सवैया
देखन कौं सखी नैन भए न सबै बन आवत गाइन पाछैं।
कान भए प्रति रोम नहीं सुनिबे कौं अमीनिधि बोलनि आछैं।।
ए सजनी न सम्हारि भरै वह बाँकी बिलोकनि कोर कटाछै।
भूमि भयौ न हियो मेरी आली जहाँ हरि खेलत काछनी काछै।।126।। Sujan Raskhan Part-3
127. सवैया
मोरपखा मुरली बनमाल लखें हिय कों हियरा उमह्यौ री।
ता दिन ते इन बैरिनि को कहि कौन न बोल कुबोल सह्यौ री।।
तौ रसखानि सनेह लग्यौ कोउ एक कह्यौ कोउ लाख कह्यौ री।।
और तो रंग रह्यौ न रह्यौ इक रंग रँगी सोह रंग रह्यौरी।।127।।
128. सवैया
बन बाग तड़ागनि कुंजगली अँखियाँ मुख पाइहैं देखि दई।
अब गोकुल माँझ बिलोकियैगी बह गोप सभाग-सुभाय रई।।
मिलिहै हँसि गाइ कबै रसखानि कबै ब्रजबालनि प्रेम भई।
वह नील निचोल के घूँघट की छबि देखबी देखन लाज लई।।128।।
129. सवैया
काल्हि पर्यौ मुरली-धन मैं रसखानि जू कानन नाम हमारो।
ता दिन तें नहिं धीर रखौ जग जानि लयौ अति कीनौ पँवारो।
गाँवन गाँवन मैं अब तौ बदनाम भई सब सों कै किनारो।
तौ सजनी फिरि फेरि कहौं पिय मेरो वही जग ठोंकि नगारो।।129।।
130. सवैया
देखि हौं आँखिन सों पिय कों अरु कानन सों उन बैन को प्यारी।
बाँके अनंगनि रंगनि की सुरभीनी सुगंधनि नाक मैं डारी।
त्यौं रसखानि हिये मैं धरौं वहि साँवरी मूरति मैन उजारी।
गाँव भरौ कोउ नाँव धरौं पुनि साँवरी हों बनिहों सुकुमारी।।130।।
131. सवैया
तुम चाहो सो कहौ हम तो नंदवारै के संग ठईं सो ठईं।
तुम ही कुलबीने प्रवीने सबै हम ही कुछ छाँड़ि गईं सो गईं।
रसखान यों प्रीत की रीत नई सुकलंक की मोटैं लईं सो लईं।
यह गाँव के बासी हँसे सो हँसे हम स्याम की दासी भईं सो भईं।।131।।
132. सवैया
मोर पखा धरे चारिक चारु बिराजत कोटि अमेठनि फैंटो।
गुंज छरा रसखान बिसाल अनंग लजावत अंग करैटो।
ऊँचे अटा चढ़ि एड़ी ऊँचाइ हितौ हुलसाय कै हौंस लपेटो।
हौं कब के लखि हौं भरि आँखिन आवत गोधन धूरि धूरैटो।।132।।
133. सवैया
कुंजनि कुंजनि गुंज के पुंजनि मंजु लतानि सौं माल बनैबो।
मालती मल्लिका कुंद सौं गूंदि हरा हरि के हियरा पहिरैबौ।
आली कबै इन भावने भाइन आपुन रीझि कै प्यारे रिझैबो।
माइ झकै हरि हाँकरिबो रसखानि तकै फिरि के मुसकेबो।।133।। Sujan Raskhan Part-3
134. सवैया
सब धीरज क्यों न धरौं सजनी पिय तो तुम सों अनुरागइगौ।
जब जोग संजोग को आन बनै तब जोग विजोग को मानेइगौ।
निसचै निरधार धरौ जिय में रसखान सबै रस पावेइगौ।
जिनके मन सो मन लागि रहै तिनके तन सौं तन लागेइगो।।134।।
135. सवैया
उनहीं के सनेहन सानी रहैं उनहीं के जु नेह दिवानी रहैं।
उनहीं की सुनै न औ बैन त्यौं सैंन सों चैन अनेकन ठानी रहैं।
उनहीं संग डोलन मैं रसखान सबै सुखसिंध अघानी रहैं।
उनहीं बिन ज्यों जलहीन ह्वै मीन सी आँखि अंसुधानी रहैं।।135।।
136. सवैया
चंदन खोर पै चित्त लगाय कै कुंजन तें निकस्यौ मुसकातो।
राजत है बनमाल गले अरु मोरपखा सिर पै फहरातो।
मैं जब तें रसखान बिलोकति हो कजु और न मोहि सुहातो।
प्रीति की रीति में लाज कहा सखि है सब सों बड़ नेह को नातो।।136।।
137. सवैया
कौन को लाल सलोनो सखी वह जाकी बड़ी अँखियाँ अनियारी।
जोहन बंक बिसाल के बाननि बेधत हैं घट तीछन भारी।
रसखानि सम्हारि परै नहिं चोट सु कोटि उपाय करें सुखकारी।
भाल लिख्यौ विधि हेत को बंधन खोलि सकै ऐसो को हितकारी।।137।।
138. सवैया
आली पग रंगे जे रंग साँवरे मो पै न आवत लालची नैना।
धावत हैं उतहीं जित मोहन रोके रुके नहिं घूँघट रोना।
काननि कौं कल नाहिं परै सखी प्रेम सों भीजे सुनैं बिन नैना।
रसखानि भई मधु की मछियाँ अब नेह को बंधन क्यों हूँ छुटे ना।।138।
139. सवैया
श्री वृसभान की छान धुजा अटकी लरकान तें आन लई री।
वा रसखान के पानि की जानि छुड़ावति राधिका प्रेममई री।
जीवन मुरि सी नेज लिए इनहूँ चितयौ ऊनहूँ चितई री।
लाल लली दृग जोरत ही सुरझानि गुड़ी उरझाय दई री।।139।।
140. सवैया
आब सबै ब्रज गोप लली ठिठकौं ह्वै गली जमुना-जल न्हाने।
औचक आइ मिले रसखानि बजावत बेनु सुनावत ताने।
हा हा करी सिसकीं सिगरी मति मैन हरी हियरा हुलसाने।
चूमें दिवानी अमानी चकोर सों ओर सों दोऊ चलैं दृग बाने।।140।। Sujan Raskhan Part-3
141. कवित्त
छूट्यौ गृह काज लोक लाज मन मोहिनी को,
भूल्यौ मन मोहन को मुरली बजाइबौ।
देखो रसखान दिन द्वै में बात फैलि जै है,
सजनी कहाँ लौं चंद हाथन दुराइबौ।
कालि ही कालिंदी कूल चितयौ अचानक ही,
दोउन की दोऊ ओर मुरि मुसकाइबौ।
दोऊ परै पैंया दोऊ लेत हैं बलैया, इन्हें
भूल गई गैया उन्हें गागर उठाइबौ।।141।।
142. सवैया
मंजु मनोहर मूरि लखैं तबहीं सबहीं पतहीं तज दीनी।
प्राण पखेरू परे तलफें वह रूप के जाल मैं आस-अधीनी।
आँख सों आँख लड़ी जबहीं तब सों ये रहैं अँसुधा रंग भीनी।
या रसखानि अधीन भई सब गोप-लली तजि लाज नवीनी।।142।।
143. सवैया
नंद को नंदन है दुखकंदन प्रेम के फंदन बाँधि लई हों।
एक दिन ब्रजराज के मंदिर मेरी अली इक बार गई हौं।
हेर्यौ लला लचकाइ कै मोतन जोहन की चकडोर भई हौं।
दौरी फिरौं दृग डोरन मैं हिय मैं अनुराग की बेलि बई हौं।।143।।
144. सवैया
तीरथ भीर में भूलि परी अली छूट गइ नेकु धाय की बाँही।
हौं भटकी भटकी निकसी सु कुटुंब जसोमति की जिहिं धाँही।
देखत ही रसखान मनौ सु लग्यौ ही रह्यौ कब कों हियराँही।
भाँति अनेकन भूली हुती उहि द्यौस कौ भूलनि भूलत नाँहीं।।144।।
145. सवैया
समुझे न कछू अजहूँ हरि सो अज नैन नचाइ नचाइ हँसै।
नित सास की सीखै उन्मात बनै दिन ही दिन माइ की कांति नसै।
चहूँ ओर बबा की सौ, सोर सुनैं मन मेतेऊ आवति री सकसै।
पै कहा करौं या रसखानि बिलोकि हियो हुलसै हुलसै हुलसै।।145।।
146. सवैया
मारग रोकि रह्यौ रसखानि के कान परी झनकार नई है।
लोक चितै चित दै चितए नख तैं मनन माहिं निहाल भई है।
ठोढ़ी उठाई चितै मुसकाई मिलाइ कै नैन लगाई लई है।
जो बिछिया बजनी सजनी हम मोल लई पुनि बेचि दई है।।146।। Sujan Raskhan Part-3
147. सवैया
जमुना-तट बीर गई जब तें तब तें जग के मन माँझ तहौं।
ब्रज मोहन गोहन लागि भटू हौं लूट भई लूट सी लाख लहौं।
रसखान लला ललचाइ रहे गति आपनी हौं कहि कासों कहौं।
जिय आवत यों अबतों सब भाँति निसंक ह्वै अंक लगाय रहौं।।147।।
148. सवैया
औचक दृष्टि परे कहु कान्ह जू तासो कहै ननदी अनुरागी।
सो सुनि सास रही मुख मोहिं जिठानी फिरै जिय मैं रिस पागी।
नीके निहारि कै देखे न आँखिन हौं कबहूँ भरि नैन न जागी।
मो पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न लागी।।148।।
149. सवैया
सास की सासनहीं चलिबो चलियै निसिद्यौस चलावे जिही ढंग।
आली चबाव लुगाइन के डर जाति नहीं न नदी ननदी-संग।
भावती औ अनभावती भीर मैं छवै न गयौ कबहूँ अंग सों अंग।
घैरु करैं घरुहाई सबै रसखानि सौं मो सौं कहा कहा न भयो रंग।।149।।
150. सवैया
घर ही घर घैरु घनौ घरिहि घरिहाइनि आगें न साँस भरौं।
लखि मेरियै ओर रिसाहिं सबैं सतराहिं जौं सौं हैं अनेक करौं।
रसखानि तो काज सबैं ब्रज तौ मेरौ बेरी भयौ कहि कासों लरौं।
बिनु देखे न क्यों हूँ निमेषै लगैं तेरे लेखें न हू या परेखें मरौं।।150।।
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