Mauryottar Period in Hindi (मौर्योत्तर काल के विषय में सम्पूर्ण जानकारी)

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Mauryottar Period in Hindi

Mauryottar Period in Hindi / मौर्योत्तर काल के विषय में सम्पूर्ण जानकारी / मौर्यों के बाद के भारत की स्थिति

187 ई० पू० से 240 ई० पू० तक का काल भारतीय इतिहास में ‘मौर्योत्तर काल’ (Mauryottar Period in Hindi) के नाम से जाना जाता है। इस काल में मगध सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में ब्राह्मण साम्राज्यों (शुंग, कणव, सातवाहन एवं वाकाटक) का उदय हुआ तथा कई विदेशी आक्रमण हुए। मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहद्रथ था। जिसकी हत्या करके पुष्यमित्र शुंग ने शुंग वंश की स्थापना की। पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण था और मौर्य साम्राज्य में सेनापति था। इसने मौर्य वंश के अंतिम शासक वृहद्रथ की हत्या करके शुंग वंश की स्थापना की. प्रसिद्ध व्याकरणविद पतंजलि उस अश्वमेघ यज्ञ के पुरोहित थे। पुष्यमित्र शुंग के समय यवनों का आक्रमण हुआ। यवन आक्रमण का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य गार्गी संहिता तथा कालिदास के नाटक मालविकाग्निमित्र में भी मिलता है।

जब मौर्यों का साम्राज्य ई०पू० 185 में पूरी तरह ध्वस्त हो गया तो देश में अनेक विदेशी शक्तियों (शक, कुषाण आदि) तथा देशी वंशजों (शुंग वंश, कण्व वंश, सातवाहन वंश, पाण्ड्य वंश, चोल वंश तथा चेर वंश आदि) ने अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए. शकों, कुषाणों, सातवाहनों का प्रभाव काल लगभग 200 ई०पू० से 200 ई० तक तो दूसरी ओर प्रथम तमिल राज्यों का प्रभाव काल लगभग 100 ई० से 35० ई० तक चलता रहा. भारतीय इतिहास में मौर्योत्तर कल को यद्यपि सम्पूर्ण देश को राजनैतिक एकता के सूत्र में बांधने की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता लेकिन कला, शिल्प, व्यापार, साहित्य एवं सांस्कृतिक प्रगति की दृष्टि से इसका अध्ययन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है .

मौर्योत्तर काल में हस्त कौशल, खनन तथा धातुशोधन (Crafts, Mining and Metallurgy in Mauryottar Period)

मौर्योत्तर काल (Mauryottar Period in Hindi) में कला और शिल्प का असाधारण विकास हुआ. मौर्योत्तर कालीन ग्रन्थों में हमें जितने प्रकार के शिल्पकारों का उल्लेख प्राप्त होता है उतना पहले के ग्रंथों में नहीं मिलता. उदाहरणार्थ प्रांग मौर्यकालीन ग्रन्थ दीघनिकाय में केवल 24 व्यवसायों का उल्लेख है तो मौर्योत्तरकालीन बौद्ध ग्रन्थ महावस्तु (सम्भवतः इसकी रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुई) के अनुसार राजगीर (अथवा राजगृह नगरी) में 36 प्रकार के विभिन्न व्यवसाय करने वाले शिल्पकार रहते थे. इसी प्रकार मिलिन्दपन्हो (या मिलिद के प्रश्न) में जिन 75 विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख है उनमें 60 विभिन्न प्रकार के शिल्पों से सम्बन्धित है. इनमें प्रमुख व्यवसाय हैं – सोने, चांदी, सीसा, टिन, तांबा, पीतल, लोहा, जस्ता, लाल संखिया, हाथी दांत, मोतियों या कीमती पत्थरों का काम आदि. साहित्यिक स्रोतों में शिल्पकारों का उल्लेख अधिकतर नगरों के साथ आता है परन्तु कुछ उत्खननों से स्पष्ट है कि वे गांव में भी रहते थे. तेलंगाना स्थित करीमनगर के एक गांव में बढ़ई, लुहार, सुनार, कुम्हार इत्यादि अलग-अलग टोलों में रहते थे तथा खेतिहर और अन्य मजदूर गांव के एक अन्य छोर पर रहते थे. विभिन्न धातुओं के उल्लेख से पता चलता है कि उस समय देश ने खनन एवं धातु उद्योग में बहुत प्रगति कर ली थी.

विभिन्न हस्त कौशल एवं शिल्पकलाओं के विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि लोगों ने देश में उद्योगों के विकास के लिए विशिष्टीकरण को अपनाया और उसे प्रोत्साहन भी दिया जिससे औद्योगिक तकनीकी कौशल की बहुत प्रगति हुई. इस काल में लोहे से सम्बन्धित काम के तकनीकी ज्ञान में भी देश ने बहुत प्रगति की. उत्खनन में विभिन्न स्थानों पर कुषाण तथा सातवाहन काल से सम्बन्धित कलात्मक वस्तुए प्राप्त हुई हैं. आंध्र राज्य के तेलंगाना क्षेत्र ने अनेक धातु उद्योगों में बहुत ज्यादा प्रगति कर ली थी. भारतीय लौह तथा इस्पात का निर्यात अबीसीनिया के बन्दरगाहों को होता था. भारतीय लौह वस्तुओं की मांग पश्चिमी एशिया के देशों में बहुत थी. इसी काल में कपड़ा निर्माण ने और भी प्रगति की. देश में सूती, रेशमी तथा ऊनी वस्त्र बनाये जाते थे. चीनी रेशम के आयात से देश में रेशमी वस्त्र उद्योगों को बहुत प्रोत्साहन मिला. मथुरा में एक विशेष प्रकार का कपड़ा बनाया जाता था, जिसे साटाका (Sataka) कहा जाता था. दक्षिण भारत के कुछ नगरों में वस्त्र रंगाई एक विकसित शिल्प थी. तमिलनाडु के उराइयपुर (Uraipur) तथा तिरुचिरापल्ली में यह उद्योग बहुत विकसित था. तेल का निर्माण अधिक होने लगा क्योंकि अब कोल्हू का प्रयोग होने लगा. देश में विलासिता की वस्तुएं भी बड़ी मात्रा में बनाई जाती थीं. हाथी दांत का काम, कांच की वस्तुओं का निर्माण, मूल्यवान पत्थरों के सुन्दर आभूषण (terra cottas) का निर्माण आदि शिल्प कलाएं भी विकसित थीं. इस काल के अभिलेख एवं उत्खनन अनेक शिल्पकारों की जानकारी देते हैं. जैसे बुनकरों, सुनारों, रंगरेजों, जौहरियों, मूर्तिकारों, लुहारों, गांधिकों, हाथी दांत का काम करने वाले शिल्पकार, भवन निर्माण करने वाले शिल्पकार, कांच का काम करने वाले, मनके बनाने वाले आादि. यद्यपि साहित्यिक स्रोतों में शिल्पकारों का सम्बन्ध मुख्यतः नगरों एवं कस्बों से ही बताया गया है लेकिन उत्खननों से ज्ञात होता है कि अनेक शिल्पकार गांवों में भी रहते थे. गांवों में शिल्पकारों की बस्तियाँ किसानों से अलग होती थीं.

शिल्पकारों की श्रेणियाँ

इस काल में शिल्पकारों ने विभिन्न श्रेणियों में स्वयं को संगठित किया. शिल्पकारों की श्रेणियों का उल्लेख मथुरा एवं पश्चिम दक्कन क्षेत्रों से प्राप्त होने वाले अभिलेखों में मिलता है. पश्चिमी दक्कन में गोवर्धन नामक नगर उनका प्रमुख केन्द्र था. इन श्रेणियों के पास शिल्पकार अपनी बचत जमा कराते थे तथा जरूरत पड़ने पर इनसे ऋण भी लेते थे. शिल्पकार इन्हीं श्रेणियों के पास बौद्ध भिक्षुओं तथा ब्राह्मणों, वस्त्र-अन्न तथा अन्य खाने की वस्तुएं दान देने के लिए भी धन जमा कराते थे. श्रेणियां ही शिल्पकारों की बचत को उद्योगों में लगाकर उत्पादन को बढ़ाती थी. इन श्रेणियों ने अपने सदस्यों को समाज में प्रतिष्ठा, सम्मान एवं सुरक्षा प्रदान करने में भी भूमिका अदा की. हर श्रेणी का अपना तग़मा, मुहर एवं पताका होती थी. विभिन्‍न साहित्यिक स्रोतों के आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय कम-से-कम दस्तकारों को 24 शिल्प श्रेणियां थीं.

ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि इन श्रेणियों की प्रतिष्ठा बहुत अच्छी थी तथा लोग इनकी ईमानदारी पर विश्वास करते थे. साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि दूसरी शताब्दी ई० में महाराष्ट्र स्थित बौद्ध धर्म के साधारण अनुयायी भिक्षुओं को वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुएं देने के लिए कुम्हारों, तेलियों एवं बुनकरों के पास धन जमा करते थे. उसी शताब्दी में एक प्रधान ने मथुरा के आटा पीसने वालों की श्रेणी (गिल्ड) के पास अपनी मासिक आय से पैसे जमा कराये थे जिससे प्रतिदिन एक सौ ब्राह्मणों को भोजन खिलाया जा सके. इस काल में अनेक नगरों में व्यापारियों ने भी स्वयं को श्रेणियों में संगठित कर रखा था. ये श्रेणियां व्यापारियों की बचत जमा करने, उन्हें ऋण देने तथा सिक्के जारी करने का कार्य करती थीं. Mauryottar Period in Hindi

मौर्योत्तर काल में विदेशी व्यापार (Foreign Trades in Mauryottar Period)

मौर्योत्तर काल (Mauryottar Period in Hindi) की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आर्थिक घटना थी भारत और पूर्वी रोमन साम्राज्य के बीच फलता-फूलता व्यापार. आरम्भ में इस व्यापार का एक बड़ा भाग स्थल मार्ग से होता था लेकिन प्रथम शताब्दी ई० पू० से शकों, पार्थियानों तथा कुषाणों के संचालन के कारण स्थल मार्ग से होने वाले व्यापार में बाधायें डालीं. यद्यपि ईरान के पार्थियानों ने भारत से लोहे और इस्पात का आयात किया तथापि उन्होंने ईरान के सुदूर पश्चिम के देशों के साथ होने वाले भारतीय व्यापार में बाधा डाली. परन्तु प्रथम शताब्दी ई० से भारतीय व्यापार मुख्यतया समुद्री मार्ग से हुआ.

ईसा की पहली शती में हिप्पालस नामक यूनानी नाविक ने अरब सागर में चलने वाली मानसून पवनों की जानकारी दी जिससे अरब सागर से यात्रा की जा सकती थी और इस प्रकार भारत एवं पश्चिमी एशिया के बंदरगाहों के मध्य अन्तर कम हो गया. अब व्यापारी सरलता से विभिन्‍न बंदरगाहों जैसे भारत के पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच और सोपारा तथा उसके पूर्वी तट पर स्थित अरिकमेडु और ताम्र लिप्ति में लंगर डाल सकते थे. इन सब भारतीय बन्दरगाहों में व्यापारिक गतिविधियों की दृष्टि से भड़ौच अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्रगतिशील लगता है. वहाँ न केवल सातवाहन राज्य में उत्पन्न वस्तुएं, बल्कि शक तथा कुषाण राज्यों में उत्पन्न वस्तुएं भी लाई जाती थीं. शक तथा कुषाण राज्यों के व्यापारी उत्तर-पश्चिमी सीमा से पश्चिमी समुद्र तट तक आने के लिए दो मार्गों का प्रयोग करते थे. वे दोनों मार्ग तक्षशिला में आकर मिल जाते थे, और मध्य एशिया से होकर गुजरने वाले रेशम मार्ग (सिल्क रूट) से जुड़े हुए थे. प्रथम व्यापारिक मार्ग सीधे उत्तर से दक्षिण तक्षशिला को निचली सिंधु घाटी से जोड़ता हुआ भड़ौच जाता था. द्वितीय व्यापारिक मार्ग ‘उत्तरापथ’ कहलाता था तथा उसका अपेक्षाकृत ज्यादा उपयोग होता था. वह तक्षशिला से आधुनिक पंजाब होता हुआ यमुना नदी के पश्चिमी तट तक जाता था. वह यमुना नदी की धारा के साथ-साथ दक्षिण की ओर मथुरा तक जाता था. मथुरा से मालवा के उज्जैन और फिर वहां से पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच पहुंचता था. एक अन्य मार्ग कौशाम्बी (प्रयागराज के निकट) से शुरू होकर उज्जैन तक आता था.

मौर्योत्तर काल में व्यापार की स्थिति (Business in Mauryottar Period in Hindi)

यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि भारत ओर पूर्वी रोमन साम्राज्य के मध्य व्यापार की मात्रा काफी थी, तथापि दैनिक एवं साधारण प्रयोग की वस्तुओं का व्यापार नहीं होता था. विलासता की वस्तुओं का व्यापार अधिक होता था. परन्तु दैनिक उपयोग की वस्तुओं के व्यापार में कोई तेजी नहीं थी. इतिहासकारों की राय है कि रोमन लोगों ने सर्वप्रथम देश के सुदूर दक्षिणी भागों से व्यापार आरम्भ किया. उनके सबसे प्रारम्भिक सिक्‍के तमिल राज्यों के क्षेत्र में पाए गए हैं, जो सातवाहन आधिपत्य के बाहर था. ईसवी सन्‌ की पहली शती में एक “अनाम” यूनानी नाविक ने अपनी “पोरिप्लस आफ दि एरिश्वियन सी” नामक रचना में भारत द्वारा रोमन साम्राज्य को निर्यात किए जाने वाले सामान का विवरण दिया है जिनमें हैं: मसाले, मलमल, मोती, हाथी दांत, मणिरत्न, लोहे की वस्तुएँ (विशेषकर बर्तन) आदि. भारत द्वारा सीधे दी जाने वाली वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ वस्तुएँ चीन और मध्य एशिया से भारत लाई जाती थीं और फिर रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग को भेजी जाती थी. उदाहरणार्थ भारत रेशम चीन से आयात करता तथा रोमन साम्राज्य को भेजता था. रोमन साम्राज्य की मसालों की आवश्यकता केवल भारतीय सामग्री देने से ही पूर्ण नहीं होती थी, इसलिए भारतीय व्यापारी दक्षिण-पूर्व एशिया से सम्पर्क बढ़ाने लगे. दक्षिण पूर्व एशिया से भारत मसाले सम्बन्धी वस्तुएं लाकर रोम भेजता था. भारत मोर (पक्षी) तथा बन्दर (पशु) का भी रोम को निर्यात करता था. बदले में रोमन लोग भारत को शराब के दो हत्थे वाले कलश और मिट्टी के विभिन्‍न प्रकार के बर्तन निर्यात करते थे, जो खुदाइयों के दौरान पश्चिमी बंगाल के तामलुक पांडिचेरी के नजदीक अरिकमेडु तथा दक्षिण भारत के कई अन्य स्थानों में प्राप्त हुए हैं. सातवाहन राज्य में शीशे के सिक्के बनाये जाते थे. लगता है कि इस राज्य में रोम से कुंडली के आकार की शीशे की पट्टियां (in the shape of coiled strips) आयात की जाती थीं. खुदाई में उत्तर भारत में रोमन वस्तुएँ बड़ी संख्या में नहीं मिली हैं परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं कि कुषाणों के शासन काल (लगभग 65 ई० से 350 ई० तक) में भारत महाखण्ड के उत्तरी-पश्चिमी भाग ने द्वितीय ई० के दौरान रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग से व्यापार किया. इसे मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) पर रोमन विजय ने आगे बढ़ाया. Mauryottar Period in Hindi

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मेसोपोपाटिया को 115 ई० में एक रोमन प्रान्त बना दिया गया. रोमन सम्राट ट्राजन (Trajan) ने न केवल मस्कट पर विजय प्राप्त की बल्कि फारस की खाड़ी का अन्वेषण (exploration) भी किया. इस रोमन विजय तथा व्यापार के परिणामस्वरूप रोमन वस्तुएँ अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी भारत में पहुँची. काबुल से 72 किमी० उत्तर बेग्राम में इटली, मिस्र तथा सीरिया में शीशे के बड़े मरतबान मिले हैं. हमें वहाँ कटोरे, पीतल की धानी (bronze stands), इस्पात का पैमाना, पश्चिम में बने बाट, पीतल की छोटी यूनानी- रोमन मूर्तियाँ, सुराहियाँ और सिलखड़ी (alabaster) के बने अन्य बर्तन भी मिले हैं. तक्षशिला में पीतल की यूनानी-रोमन मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण प्राप्त हुए हैं. हम चाँदी का एक आभूषण, काँसे के कुछ बर्तन, एक मर्तबान और रोमन सम्राट ‘तिबेरियस’ के सिक्के भी पाते हैं. परन्तु अरेटाइन मिट्टी के बतंन जो दक्षिण भारत में आमतौर पर पाए गये हैं, मध्य या पश्चिम भारत या अफगानिस्तान में नहीं मिले हैं. इस तरह रोमन व्यापार से सातवाहनों तथा कुषाणों दोनों को लाभ पहुंचा लेकिन सम्भवतः इस विदेशी व्यापार से सातवाहनों को अधिक लाभ हुआ. अपने निर्यात के बदले रोम से भारत में अन्य सामान के अतिरिक्त बहुत बड़ी संख्या में सोने-चांदी के सिक्‍के आते थे. प्रथम शताब्दी ई० के रोमन सिक्‍कों के 85 भंडार सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में मिले हैं और इनमें से ज्यादातर विध्य पर्वत के दक्षिण में प्राप्त हुए हैं. इससे रोमन लेखक ‘प्लिनी’ की शिकायत ठीक प्रतीत होती है. उसने 77 ई० में “लैटिन” भाषा में अपना विवरण “नेचुरल हिस्ट्री” नाम से लिखा. वह दुःख भरे स्वर में कहता है कि भारत के साथ व्यापार के कारण रोम अपने स्वर्ण भंडार को खोता जा रहा है. यह अतिश्योक्ति हो सकती है. लेकिन 22 ई० में हमें ऐसे विवरण मिलते हैं जिसमें पूर्व से गोलमिर्च खरीदने पर बहुत ज्यादा खर्च की शिकायतें सुनते हैं. चूंकि पश्चिम के लोग भारतीय काली मिर्च के बड़े शौकीन थे इसलिए इसे (काली मिर्च को) संस्कृत में यवनप्रिय कहा गया है. भारत में बनाये गये इस्पात के छुरी-कांटों के प्रयोग के विरुद्ध रोम में भारी प्रतिक्रिया शुरू हुई. इनके लिए रोमन सामन्त ऊंची कीमतें चुकाते थे. रोम तथा भारत में होने वाले व्यापार का सन्तुलन (balance of trade) भारत के पक्ष में इतना अधिक हो गया था कि अंततः भारत के साथ गोल मिर्च और इस्पात की वस्तुओं के व्यापार पर प्रतिबंध लगाने के लिए रोम में कदम उठाने पड़ें.

सोने के रोमन सिक्कों को स्वभावत: अन्तर्भूत मूल्य के कारण ही मूल्यवान समझा जाता था, परन्तु बड़े लेन-देनों में भी उनका परिचालन हुआ होगा. नि:सन्देह उत्तर में भारतीय यूनानी शासकों ने सोने के कुछ सिक्के जारी किए लेकिन यह कहना ठीक नहीं है कि सोने के सभी कुषाण-सिक्के रोमन सोने से ही ढाले गये. भारत में उस समय सिंध प्रदेश में सोने की खानों से सोना निकाला जाता था. सम्भवतः कुषाणों ने मध्य एशिया से भी सोना प्राप्त किया. हाँ, कुछ इतिहासकारों की राय है कि कुषाणों ने रोमन सम्पर्क के कारण दीनार की किस्म के सोने के सिक्के जारी किए, जिनकी बाद में गुप्त साम्राज्य के काल में संख्या बहुत अधिक हो गई. Mauryottar Period in Hindi

मौर्योत्तर काल में शहरीकरण (Urbanization in Mauryottar Period)

उत्तर मौर्यकाल में विकसित हो रहे शिल्प कलाओं, व्यापार, वाणिज्य तथा मुद्रा के बढ़ते हुए प्रयोग ने इस काल में असंख्य नगरों के विकास एवं उनकी समृद्धि को बढ़ाने में योगदान दिया. उत्तर भारत के सभी महत्त्वपूर्ण नगरों जैसे पाटलिपुत्र, वैशाली, वाराणसी, कौशाम्बी, श्रावस्ती, हस्तिनापुर, मथुरा, इन्द्रप्रस्थ (पुराना किला नई दिल्ली का) आदि का तत्कालीन साहित्यिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है. चीनी यात्रियों (ह्वानसांग, फाह्यान, इत्सिंग) के विवरणों से भी इन नगरों के होने की पुष्टि होती है. इनमें से अधिकतर नगर प्रथम द्वितीय शताब्दी ई. में कुषाण युग में फले-फूले. खुदाई में मिली कुषाणकालीन बढ़िया इमारतें इस बात की पुष्टि करती है कि बिहार राज्य के कई स्थल जैसे मसोन (गाजीपुर) चिरन्द, सोनपुर तथा बक्सर और पूर्वी उत्तर प्रदेश का गाजीपुर कुषाण काल में बहुत समृद्ध नगर थे. इनमें चिरन्द नगर सम्भवतः सर्वाधिक समृद्ध था क्योंकि वहाँ पकी हुई इंटों के बने बहुत बढ़िया मकान मिले हैं. इतिहासकारों ने इन्हें कुषाणकालीन बताया है. इसी तरह उत्तर प्रदेश में सोहगौरा, भीटा, अतरंजी खेरा, मेरठ, मथुरा तथा मुजफ्फर नगर उन्नति पर थे. हरियाणा राज्य में जहाँ उत्खनन हुआ है वहाँ बढ़िया किस्म की इंटों की बनी इमारतें यह प्रमाणित करती हैं कि यहाँ भी शहरी बस्तियाँ खूब पनप रही थीं. पंजाब स्थित जलंधर, लुधियाना तथा रोपड़ भी कुषाण युग में विकसित नगर थे.

यही बात पश्चिमी भारत तथा मालवा के शक राज्य नगरों के लिए भी सही है. इस क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण नगर उज्जैन था. यह नगर तत्कालीन दो महत्त्वपूर्ण मार्गों का मिलन बिन्दु था. एक मार्ग कौशाम्बी से तथा दूसरा मार्ग मथुरा से उज्जैन को भाता था. शक-कुषाण शासन क्षेत्रों की भाँति इस काल में सातवाहन राज्य में कई नगर फले-फूले . दक्षिण भारत में सातवाहन शासन काल में टागर (टेर), पैठान, धान्यकटक, अमरावती, नागार्जुनकोंडा, भड़ोच, सोपारा, अरिकमेडु ओर कावेरीपत्तनम समृद्धिशाली नगर थे. अनेक सातवाहन बस्तियों का तेलंगाना में उत्थनन हुआ है. इनमें से कुछ आंध्र प्रदेश के बीस दीवारों से घिरे शहरों के अनुरूप है, जिनका उल्लेख रोमन इतिहासकार प्लिनी ने किया है. विद्वानों की राय है उनका उदय आंध्र के तटवर्ती शहरों से काफी पहले लेकिन पश्चिमी महाराष्ट्र के नगरों से कुछ ही समय बाद हुआ होगा. शक, कुषाण ओर सातवाहन साम्राज्यों में नगर इसलिए फले-फूले क्योंकि उन्होंने विदेशी व्यापार को व्यापक पैमाने पर बढ़ाया. इसका कारण यह भी था कि इस काल में शहरों को जाने वाले मार्गों-सड़कों पर सुरक्षा का अच्छा प्रबन्ध किया गया. इन शहरों में से अधिकांश शहरों का तीसरी शताब्दी ई० में या तो पतन हो गया या इनकी प्रगति रुक गई. इसका प्रमुख कारण रोमन साम्राज्य द्वारा भारत के साथ व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना था. इस प्रतिबन्ध के कारण विदेशों में भारत की बनी हुई अनेक वस्तुओं की मांग पर बहुत बुरा असर पड़ा और नगर वहां रहने दस्तकारों तथा व्यापारियों का भरण-पोषण नहीं कर सके . Mauryottar Period in Hindi

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