Information about Jain Tirthankara in Hindi / जैन धर्म के तीर्थंकरों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां
ऋषभनाथ या आदिनाथ
- पिता: अयोध्या नरेश
- माता: मरूदेवी
- पत्नी: सुनंदा और सुमंगला
इनका जन्म अयोध्या में हुआ. ऋषभ की मूर्तियाँ सर्वथम कुषानकाल में निर्मित मूर्ति मथुरा और चौसा से प्राप्त हुए हैं. कैलाश पर निर्वाण प्राप्त किया.
अजितनाथ
- पिता: महाराज जितशत्रु
- माता: विजय देवी
12 वर्षों की कठिन तपस्या के बाद अजित को अयोध्या में कैवल्य प्राप्त हुआ. अजितनाथ की प्रारम्भिकतम मूर्ति वाराणसी से मिली है.
संभवनाथ
- पिता: श्रावस्ती के शासक जितारि
- माता: सेना देवी या सुषेर्णा
दीक्षा के बाद श्रावस्ती में उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ.
अभिनंदन
- पिता: महाराजा संवर
- माता: सिद्धार्था
10वीं शती ई. से पहले की अभिनंदन की एक भी मूर्ति नहीं मिली है. इनकी स्वतंत्र मूर्तियाँ केवल देवगढ़, खजुराहो और नवमुनि और बारभुजी गुफाओं से मिली है.
सुमतिनाथ
- पिता: अयोध्या के शासक मेघ या मेघप्रभ
- माता: मंगला
20 वर्षों की कठिन तपश्चर्या के पश्चात इन्हें कैवल्प प्राप्त हुआ. 10वीं शती ई. से पूर्व की सुमतिनाथ की कोई मूर्ति नहीं मिली है.
पद्मप्रभ
- पिता: कौशाम्बी के शासक धर या धरण
- माता: देवी सुशीला
कौशाम्बी के वन में कैवल्य प्राप्त हुआ. 10वीं शती ई. से पूर्व की पद्मप्रभ की एक भी मूर्ति नहीं मिली है. पद्मप्रभ की मूर्तियाँ केवल खुजराहो, छतरपुर, देवगढ़, ग्वालियर, कुम्भारिया और बारभुजी गुफा से मिली हैं.
सुपार्श्वनाथ
- पिता: वाराणसी के शासक प्रतिष्ठ
- माता: पृथ्वी देवी
वाराणसी के वन में वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था. मूर्तियों में सुपार्श्वनाथ की पहचान मुख्य रूप से एक, पाँच या नौ सर्पफणों के छत्र के आधार पर की गई है. अधिकांश उदाहरणों में तीर्थंकर के सर पर पांच सर्पफणों का छत्र ही दिखाया गया है. सुपार्श्वनाथ की सर्वाधिक मूर्तियाँ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में शहडोल, मथुरा, देवगढ़ और खजुराहो से मिली हैं. इस क्षेत्र में पाँच सर्पफणों के छत्र से शोभित सुपार्श्वनाथ को सामान्यतः कार्योत्सर्ग में दिखाया गया है. Information about Jain Tirthankara
चन्द्रप्रभ
- पिता: चन्द्रपुरी के शासक महासेन
- माता: लक्ष्मणा या लक्ष्मी देवी
दीक्षा के बाद कठिन तपस्या द्वारा चन्द्रपुरी के वन में चन्द्रप्रभ को कैवल्य प्राप्त हुआ.
सुविधिनाथ (या पुषपदंत)
- पिता: सुग्रीव
- माता: वामदेवी
दीक्षा के बाद काकन्दी वन में इन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ.
शीतलनाथ
- पिता: महाराज दृढ़रथ
- माता: नंदादेवी
श्रेयांशनाथ
- पिता: विष्णु
- माता: विष्णुदेवी
वासुपूज्य
- पिता: वासुपूज्य
- माता: जया या विजया
विमलनाथ
- पिता: कृतवर्मा
- माता: श्यामा
अनंतनाथ
- पिता: सिंहसेन
- माता: सुयशा
धर्मनाथ
- पिता: भानु
- माता: सुव्रता
शांति
- पिता: हस्तिनापुर के शास विश्वसेन
- माता: अचिरा
एक वर्ष की कठिन तपस्या के बाद कैवल्य प्राप्त किया.
कुन्थुनाथ
- पिता: वसु या सूर्यसेन
- माता: श्रीदेवी
अरनाथ
- पिता: सुदर्शन
- माता: महादेवी
तीन वर्षों की तपस्या के बाद आम्रवृक्ष के नीचे इन्हें कैवल्य प्राप्त हुआ.
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मल्लिनाथ
- पिता: मिथला के शासक कुम्भ
- माता: प्रभावती
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार मल्लिनाथ नारी तीर्थंकर थीं, किन्तु दिगम्बर परम्परा में इन्हें पुरुष तीर्थंकर ही माना गया है. 11 वीं शताब्दी की उन्नाव से प्राप्त एक श्वेताम्बर मूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ में संगृहीत है. यह मल्लि की नारी मूर्ति है जिसमें वक्ष स्थल का उभार नारीवक्ष के समान है और केश-रचना भी वेणी के रूप में संवारी गई है. नारी के रूप में मल्लि के रूपायन का यह अकेला उदाहरण है. दिगम्बर परम्परा की कुछ मूर्तियाँ सतना, बारभुजी और त्रिशूल गुफाओं से मिली हैं.
मुनिसुव्रत
- पिता: राजगृह के शासक सुमित्र
- माता: पद्मावती
नमिनाथ
- पिता: विजय
- माता: वपा
नेमिनाथ (या अरिष्टनेमि)
- पिता: महाराज समुद्रविजय
- माता: शिवा देवी
समुद्रविजय के अनुज वसुदेव थे जिनकी दो पत्नियों रोहिणी और देवकी से क्रमशः बलराम और कृष्ण उत्पन्न हुए. इस प्रकार कृष्ण और बलराम नेमिनाथ के चचेरे भाई थे. गिरनार पर निर्वाण उपलब्ध किया.
पार्श्वनाथ
- पिता: वाराणसी के महाराज अश्वसेन
- माता: वामा
पार्श्वनाथ जिस समय तपस्या में लीन थे तो उसी समय उनके पूर्वजन्म के वैरी मेघमाली (या कमठ) नाम के असुर ने उनकी तपस्या में तरह-तरह के विघ्न डाले. मेघमाली ने भयंकर वृष्टि द्वारा जब पार्श्वनाथ को जल में डुबो देना चाहा और वर्षा का जल पार्श्व की नासिका तक पहुँच गया. तब उनकी रक्षा के लिए नागराज धरणेंद्र नागदेवी पद्मावती के साथ वहाँ उपस्थित हुए. धरणेंद्र ने तीर्थंकर को अपनी कुंडलियों पर उठा लिया और उनके पूरे शारीर को ढंकते हुए सर के ऊपर सात सर्पफणों की छाया की थी. जैन ग्रन्थों में पार्श्वनाथ के सर पर तीन, सात या ग्यारह सर्पफणों का छत्र दिखाए जाने का उल्लेख मिलता है. इसी कारण कभी-कभी पार्श्वनाथ के सर पर तीन और 11 सर्पफणों का छत्र भी दिखाया जाता है. Information about Jain Tirthankara
महावीर
- पिता: सिद्धार्थ
- माता: त्रिशला
बचपन का नाम वर्धमान था. वह लिच्छवी वंश के थे. उस समय लिच्छवी वंश का साम्राज्य वैशाली (जो आज बिहार के हाजीपुर जिले में है) में फैला हुआ था. गौतम बुद्ध की ही तरह राजकुमार वर्धमान ने राजपाट छोड़ दिया और 30 वर्ष की अवस्था में कहीं दूर जा कर 12 वर्ष की कठोर तपस्या की. इस पूरी अवधि के दौरान वे अहिंसा के पथ से भटके नहीं और खानपान में भी बहुत संयम से काम लिया. राजकुमार वर्धमान ने अपनी इन्द्रियों को सम्पूर्ण रूप से वश में कर लिया था. 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद, 13वें वर्ष में उनको महावीर और जिन (विजयी) के नाम से जाना जाने लगा.
महावीर स्वामी जैन परम्परा के 24वें तीर्थंकर कहलाए. उनके उपदेशों में कोई नई बात नहीं दिखती. अपितु पार्श्वनाथ जो जैनों के २३वे तीर्थंकर थे उनकी चार प्रतिज्ञाओं में इन्होंने एक पाँचवी प्रतिज्ञा और शामिल कर दी और वह थी – पवित्रता से जीवन बिताना. पार्श्वनाथ एक क्षत्रिय थे. राजगीर के निकट पावापुरी नामक स्थान में अपना शरीर त्याग दिया. उनके मुख्य सिद्धांत थे – सदैव सच बोलना, अहिंसा, चोरी न करना और धन का त्याग कर देना.
महावीर स्वामी के शिष्य नग्न घूमते थे इसलिए वे निर्ग्रन्थ कहलाये. बुद्ध की भाँति ही महावीर स्वामी ने शरीर और मन की पवित्रता, अहिंसा और मोक्ष को जीवन का अंतिम उद्देश्य माना. पर उनका मोक्ष बुद्ध के निर्वाण से भिन्न है. आत्मा का परमात्मा से मिल जाना ही जैन धर्म में मोक्ष माना जाता है. जबकि बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म से मुक्ति ही निर्वाण है. लगभग 30 वर्षों तक महावीर स्वामी ने इन्हीं सिद्धांतों का प्रचार किया और 72 वर्ष की आयु में उन्होंने राजगीर के निकट पावापुरी नामक स्थान में अपना शरीर त्याग दिया.
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