Battle of Karnal in Hindi / करनाल का युद्ध / करनाल के युद्ध का परिणाम
करनाल का युद्ध भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण युद्धों में से एक है। यह युद्ध इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है कि इस युद्ध के दौरान सिर्फ सैनिक ही नही मरे वरन युद्ध के उपरान्त दिल्ली के आम नागरिकों को भी भयंकर विभीषिका झेलनी पड़ी और दिल्ली की सड़कों पर खुलेआम कत्लेआम हुआ.
करनाल का युद्ध 24 फ़रवरी, 1739 ई. को विदेशी आक्रमणकारी नादिरशाह और मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह के मध्य लड़ा गया। इस समय तक मुग़ल शासन बहुत कमजोर हो चुका था और गद्दी पर बैठा हुआ बादशाह मुहम्मदशाह बहुत डरपोक शासक था. इतिहास में उसे रंगीला बादशाह के नाम से भी जाना जाता है. तो हुआ ये कि नादिरशाह के आक्रमण से भयभीत होकर मुहम्मदशाह 80 हज़ार सेना लेकर ‘निज़ामुलमुल्क’, ‘कमरुद्दीन’ तथा‘ख़ान-ए-दौराँ’ को साथ लेकर आक्रमणकारी नादिरशाह का मुकाबला करने के लिए चल पड़ा। शीघ्र ही अवध का नवाब सआदत ख़ाँ भी उससे आ मिला लेकिन ये सब नादिरशाह की सेना के सामने ज्यादा देर तक नहीं टिक सके और करनाल का प्रसिद्द युद्ध मात्र 3 घन्टे में समाप्त हो गया.
करनाल के युद्ध का कारण
करनाल भारत के हरियाणा राज्य में स्थित है. वर्तमान में यह हरियाणा के 22 जिलों में से एक है। करनाल का युद्ध पानीपत के तृतीय युद्ध से 22 वर्ष पूर्व लड़ा गया था। इस समय भारत में मुगलों का शासन था लेकिन मुग़ल शासन की जड़ें तब तक काफी कमजोर हो चुकी थी. करनाल का युद्ध (Battle of Karnal in Hindi) नादिरशाह और मुहम्मदशाह के बीच लड़ा गया था. नादिरशाह फ़ारस का शासक था और उसने हिन्दुस्तान की अकूत संपदा और संपत्ति के चर्चे सुन रखे थे इसीलिए उसने लूटपाट करने के उद्देश्य से भारत पर आक्रमण कर दिया.
युद्ध का वर्णन
करनाल के इस युद्ध (Battle of Karnal in Hindi) में ख़ान-ए-दौराँ युद्ध में लड़ते हुए मारा गया, जबकि सआदत ख़ाँ बन्दी बना लिया गया। इस दौरान अपनी हार निश्चित देखकर निज़ामुलमुल्क ने शान्ति की भूमिका निभाई और नादिरशाह के पास मुहम्मदशाह का शांति का पैगाम ले गया लेकिन इतिहास गवाह है कि वह शांति का पैगाम कम और आत्मसमर्पण ज्यादा था.मुहम्मदशाह, निज़ामुलमुल्क की इस सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और उसे ‘मीर बख़्शी’ के पद पर नियुक्त कर दिया, क्योंकि ख़ान-ए-दौराँ की मृत्यु के बाद यह पद खाली हो गया था। उधर नादिरशाह द्वारा बंदी बनाया गया सआदत ख़ाँ भी मीर बख़्शी बनना चाहता था, लेकिन जब वह इस पद से वंचित रह गया, तो उसने नादिरशाह को धन का लालच देकर दिल्ली पर आक्रमण करने को कहा।
दिल्ली की वो भयानक लूट
सआदत ख़ाँ के कहने पर नादिरशाह ने दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया, तथा वह 20 मार्च, 1739 को दिल्ली पहुँचा। दिल्ली में पहुँचते ही नादिरशाह के नाम का ‘खुतबा’ पढ़ा गया तथा सिक्के जारी किए गए। अभी तक सब ठीकठाक चल रहा था लेकिन 22 मार्च, 1739 ई. को किसी ने नादिरशाह के एक सैनिक की हत्या कर दी. नादिरशाह ने अपने सैनिकों को दिल्ली में कत्लेआम का आदेश दे दिया।
सबसे खौफनाक कत्लेआम दिल्ली के चांदनी चौक, दरीबा और जामा मस्जिद के आसपास के इलाके में हुआ। यहीं पर सबसे महंगी दुकानें और जौहरियों के घर थे। नादिरशाह के सैनिकों ने उनको जी भर के लूटा. नादिरशाह के सैनिक घर-घर जाकर लोगों को मार रहे थे। कत्लेआम करते हुए वे लोगों का माल-असबाब लूट रहे थे और उनकी बहू-बेटियों को उठा ले रहे थे। बच्चे, बूढ़े उन्होंने किसी को भी नहीं छोड़ा। सिपाहियों ने घरों में आग लगा दी और सबको जला डाला। यह कत्लेआम सुबह नौ बजे शुरू हुआ और दोपहर 2 बजे तक बेरोकटोक चलता रहा। तब मुहम्मद शाह ने निजाम और वजीर को नादिर के पास माफी मांगने के लिए भेजा। निज़ाम ने अपनी पगड़ी उतारी तथा अपने हाथ बांधकर वह नादिरशाह के सामने पहुंचा, घुटने टेके और कहा कि नादिरशाह अपने सैनिकों को आदेश दें कि वे निर्दोष लोगों पर रहम करें, उनको न मारें। चाहें तो उससे बदला ले लें। नादिरशाह ने अपनी तलवार म्यान में रख ली और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे लूटपाट और कत्लेआम बंद कर दें। उसके सैनिकों ने अपने बादशाह का हुक्म मान लिया। लेकिन तब तक भयानक तबाही हो चुकी थी।
युद्ध का परिणाम
जीतने के बाद नादिरशाह ने शांति वार्ता के चलते मुहम्मदशाह को 20 करोड़ रुपए हर्जाने के रूप में देने को कहा। किन्तु राजकोष खाली हो जाने की वजह से वह यह हर्जाना न दे सका। इसके एवज में मुग़ल बादशाह को ‘तख़्त-ए-ताऊस’ तथा कोहिनूर हीरा नादिरशाह को देने पड़े तथा अपनी पुत्री का विवाह नादिरशाह के पुत्र ‘नासिरुल्लाह मिर्ज़ा’ से करन पड़ा। इसके अतिरिक्त कश्मीर तथा सिन्धु नदी के पश्चिमी प्रदेश भी नादिरशाह को दिए गये ताता थट्टा और उसके अधीनस्थ बन्दरगाह भी उसे दे दिये गये। नादिरशाह दिल्ली में 57 दिन तक रहा और वापस जाते समय वह अपार धन के साथ ‘तख़्त-ए-ताऊस’ तथा कोहिनूर हीरा भी ले गया। इससे प्रसन्न होकर नादिरशाह ने मुहम्मदशाह को मुग़ल साम्राट घोषित कर दिया तथा ख़ुत्बा पढ़ने और सिक्के जारी करने का अधिकार पुनः लौटा दिया।
अपने वतन वापस लौटने पर इतनी लूटी हुई अपार संपत्ति ने नादिरशाह को और ताकतवर बना दिया था। परन्तु वह ज्यादा दिन इस संपत्ति भोग न सका और इसके 8 वर्ष पश्चात 1747 में उसकी मृत्यु हो गई।
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