Battle of Dewair in Hindi / दिवेर का युद्ध / दिवेर-छापली का युद्ध
महाराणा प्रताप भारत के ऐसे शूरवीर थे जिनके बारे में आज भारत का बच्चा बच्चा जनता है. महाराणा प्रताप ने अपने जीवनपर्यंत मुगलों के युद्ध जारी रखा और उनको नाकों चने चबवा दिए. महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच हुए हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में लगभग सबने सुना होगा, पढ़ा होगा लेकिन दिवेर का युद्ध एक ऐसा महायुद्ध था जिसने महाराणा प्रताप की छवि और यश को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचा दिया. यह एक ऐसा निर्णायक युद्ध था जिसके बाद मुग़ल मवाद की तरफ दुबारा आँख उठाकर नहीं देखे.
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मुगलों को तो नुकसान हुआ ही लेकिन खुद महाराणा प्रताप की हालत भी बहुत ख़राब हो गयी. उनके बहुत सारे सैनिक मारे गए और जो कुछ बचे थे वो रसद सामग्री और सैन्य सामानों के लिए आर्थिक तंगी की वजह से बिछड़ते चले गए. महाराणा प्रताप को वन में शरण लेनी पड़ी लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. मुगल न तो महाराणा प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर पूर्ण आधिपत्य जमा सके। यूं तो हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुंदा, उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था लेकिन मेवाड़ तब भी अछूता था.
इतिहास में दर्ज है कि 1576 में हुए हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी अकबर ने महाराणा प्रताप को पकड़ने या मारने के लिए 1577 से 1582 के बीच करीब एक लाख सैन्यबल भेजे। अंगेजी इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको उन्होंने बैटल ऑफ दिवेर (Battle of Dewair in Hindi) कहा है, मुगल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध हुआ था।
कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में जहां हल्दीघाटी को थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़ की संज्ञा दी, वहीं दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मैराथन बताया है (मैराथन का युद्ध 490 ई.पू. मैराथन नामक स्थान पर यूनान केमिल्टियाड्स एवं फारस के डेरियस के मध्य हुआ, जिसमें यूनान की विजय हुई थी, इस युद्ध में यूनान ने अद्वितीय वीरता दिखाई थी), कर्नल टॉड ने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, युद्ध कुशलता को स्पार्टा के योद्धाओं सा वीर बताते हुए लिखा है कि वे युद्धभूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से भी नहीं डरते थे।
दिवेर-छापली का युद्ध
दिवेर के युद्ध को दिवेर-छापली (Battle of Dewair in Hindi) के नाम से भी जाना जाता है. यह युद्ध मेवाड़ तथा मुग़लों के बीच निर्णायक युद्ध था। विजयादशमी के दिन 26 अक्टूबर, 1582 को राणाकड़ा (दिवेर घाटा), राताखेत आदि स्थानों पर राणा प्रताप की सेना तथा मुग़ल सेना के बीच घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध ने मुग़लों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। दिवेर-छापली से महाराणा प्रताप को यश एवं विजय दोनों प्राप्त हुए। ये दिवेर-छापली तथा मगरांचल के वीर रावत-राजपूत ही थे, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप के नेतृत्व में युद्ध में अदम्य शौर्य एवं साहस का परिचय देते हुए मुग़लों को हमेशा के लिए खदेड़ दिया।
दिवेर युद्ध की योजना
दिवेर युद्ध की योजना महाराणा प्रताप ने अरावली स्थित मनकियावस के जंगलों में बनाई थी। भामाशाह जो मेवाड़ के प्रधान सेनापति और सैनिक व्यवस्था के अग्रणी थे, मालवे पर चढ़ाई कर दी और वहां से 2.3 लाख रुपए और 20 हजार अशर्फियां दंड में लेकर एक बड़ी धनराशि इकट्ठी की। इस रकम को लाकर उन्होंने महाराणा को चूलिया ग्राम में समर्पित कर दी। इसी दौरान जब शाहबाज खां निराश होकर लौट गया था, तो महाराणा ने कुंभलगढ़ और मदारिया के मुगली थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इन दोनों स्थानों पर महाराणा का अधिकार होना दिवेर पर कब्जा करने की योजना का संकेत था।
भामाशाह द्वारा मिली राशि से उन्होंने एक बड़ी फौज तैयार कर ली थी। बीहड़ जंगल, भटकावभरे पहाड़ी रास्ते, भीलों, राजपूत, स्थानीय निवासियों की गुरिल्ला सैनिक टुकड़ियों के लगातार हमले और रसद, हथियार की लूट से मुगल सेना की हालत खराब कर रखी थी।
युद्ध की शुरुवात
हल्दीघाटी के बाद अक्टूबर 1582 में दिवेर का युद्ध (Battle of Dewair in Hindi) हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना की अगुवाई करने वाला अकबर का चाचा सुल्तान खां था। विजयादशमी का दिन था और महाराणा ने अपनी नई संगठित सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया। एक टुकड़ी की कमान स्वयं महाराणा के हाथ में थी, तो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे।
महाराणा प्रताप की सेना ने महाराज कुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर के शाही थाने पर हमला किया। यह युद्ध इतना भीषण था कि महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने मुगल सेनापति पर भाले का ऐसा वार किया कि भाला उसके शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धंसा और सेनापति मूर्ति की तरह एक जगह गड़ गया।
उधर महाराणा प्रताप ने अपनी तलवार से बहलोल खान के सिर पर इतनी ताकत से वार किया कि उसे घोड़े समेत 2 टुकड़ों में काट दिया। स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध के बाद यह कहावत बनी कि मेवाड़ के योद्धा सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया करते हैं
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अपने सिपाहसालारों की यह गत देखकर मुगल सेना में बुरी तरह भगदड़ मची और राजपूत सेना ने अजमेर तक मुगलों को खदेड़ा। भीषण युद्ध के बाद बचे-खुचे 36000 मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। दिवेर के युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुंदा, कुम्भलगढ़, बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मोही, माण्डलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्ज़ा कर लिया।
स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के अधिकतर ठिकाने / दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए। यहां तक कि मेवाड़ से गुजरने वाले मुगल काफिलों को महाराणा को रकम देनी पड़ती थी।
नोट: दरअसल दिवेर का युद्ध एक बहुत लम्बे समय तक चलने वाला युद्ध था. इसलिए कहीं-कहीं दिवेर के युद्ध में जो जानकारी दी गयी है वो या तो संक्षिप्त है या दिवेर के निर्णायक युद्ध के बारे में बताया गया है जो मेवाड़ के राजा अमर सिंह प्रथम और जहांगीर के नेतृत्व में मुहम्मद परवेज और आसफ खान की मुगल सेना ने 1606 इस्वी मे लड़ा गया था।
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