Battle of Bilgram in Hindi / बिलग्राम का युद्ध / Battle of Kannauj in Hindi / कन्नौज का युद्ध / Battle of Bhojpur in Hindi / भोजपुर का युद्ध
बिलग्राम का युद्ध (Battle of Bilgram in Hindi), कन्नौज का युद्ध (Battle of Kannauj in Hindi), और भोजपुर का युद्ध (Battle of Bhojpur in Hindi) तीनों एक ही युद्ध के नाम हैं. इतिहास में इसे मुख्य रूप से बिलग्राम के युद्ध के नाम से जाना जाता है. बिलग्राम का युद्ध या कन्नौज का युद्ध मुगल बादशाह हुमायूं और सूर साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह के मध्य कन्नौज में हुआ था. यह युद्ध वर्ष 1540 ई. में लड़ा गया था। इस युद्ध में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को बुरी तरह से पराजित किया तथा हुमायूं को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया।
चौसा के युद्ध में जीत से उत्साहित था शेरशाह, हुमायूं ने किया नजरअंदाज
चौसा के युद्ध में जीत के बाद शेरखान ने खुद को सुल्तान घोषित किया तथा उसने शेरशाह की उपाधि धारण की जबकि हुमायूं और उसके भाई आपसी कलह में उलझे रहे। हालांकि हुमायूं ने उदार नीति अपनाई और अपने विद्रोही भाइयों को क्षमा कर दिया लेकिन इसके बाद भी भाइयों में एकता नहीं हो सकी। वहीं उसके भाई कामरान की बीमारी ने उसके मन में एक शंका पैदा कर दी कि उसे जहर दिया जा रहा है, इसलिए वह अपनी सेना के साथ लाहौर चला गया। वहीं अफगानों के खिलाफ प्रारंभिक जीत को छोड़कर मुगल उनके खिलाफ प्रभावी सफलता पाने में असफल रहे। इस बीच शेरशाह ने हुमायूं द्वारा बंगाल में छोड़ी गई टुकड़ी को न केवल नष्ट कर दिया था बल्कि बंगाल पर अपना नियंत्रण भी स्थापित कर लिया था।
वह मुगलों के साथ एक बार में जीत हासिल करने के लिए एक शक्तिशाली सेना के साथ आगरा की ओर बढ़ा। इस बीच शेरशाह ने पूरे पूर्वी भारत पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। कालपी और कन्नौज भी उसके कब्जे में थे। अपने भाइयों से किसी भी तरह की मदद से निराश होकर हुमायूं ने कन्नौज की ओर कूच किया और दक्षिणी तट को पार करके उसने अपनी सेना को निचले स्थान पर खड़ा कर दिया।
गंगा के किनारे 1 माह तक टिकी रही दोनों सेना
इस युद्ध से पहले बादशाह हुमायूं को यह मालूम था की शेरशाह की सेना उसकी सेना के मुकाबले ज्यादा ताकतवर एवं शक्तिशाली है और शेरशाह को इस लड़ाई में पराजित करना आसान नहीं है। इसी कारण उसने अपने भाइयों को इस युद्ध में मिलाने का प्रयास किया, लेकिन उसके भाई इस युद्ध में उसका साथ देने को तैयार नहीं हुए और हुमायूं की युद्ध की तैयारियों में भी अनेक तरह से रुकावटें डालने लगे। वहीं शेरशाह एक बेहतरीन शासक था और उसको यह जानकारी मिल गई कि हुमायूं के भाई कन्नौज के युद्ध में उसका साथ नहीं देने वाले हैं। जिसके कारण उसने अपनी सेना एवं अफ़ग़ान साथियों के साथ हुमायूं पर आक्रमण करने का फैसला किया।
हुमायूं भी उसका सामना करने के लिए तैयार था। इस युद्ध के लिए दोनों पक्षों की सेनाओं ने कन्नौज के बिलग्राम में (Battle of Bilgram in Hindi) गंगा के किनारे अपना-अपना पड़ाव डाला। इतिहासकारों के अनुसार इस युद्ध में दोनों सेनाओं की संख्या लगभग दो लाख थी। इस युद्ध के बारे में सबसे खास बात यह है कि दोनों सेनाएं लगभग एक महीने तक बिना युद्ध किए वहीं पर अपना पड़ाव डाले रहीं।
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चौसा के युद्ध में जब शेरशाह सूरी को विजय प्राप्त हुई तो भयभीत हुमायूँ चौसा के मैदान से भागकर आगरा आ गया। यहाँ पर उसने अपने सभी भाइयों के साथ सलाह मशविरा किया जिसमें उसका भाई कमरान उपस्थित नहीं हुआ और लाहौर लौटने का निश्चय कर लिया। इधर शेरशाह सूरी हुमायूँ के भाइयों के बीच मतभेद की स्थिति को भांप चूका था और इसका लाभ उठाना चाहता था। इसी लालच में उसने अपने पुत्र कुतुब खान को चँदेरी की ओर भेजा। लेकिन दुर्भाग्य से कुतुब खान मारा गया। कुतुब खान के मारे जाने की खबर सुनकर शेरशाह बहुत ज्यादा क्रोधित हुआ और हुमायूँ के विरुद्ध उसने युद्ध करने की योजना बनाई. युद्ध के उद्देश्य से शेरखान कन्नौज पहुँच गया और गंगा नदी के तट पर अपना डेरा डाल दिया।
युद्ध की शुरुवात
कन्नौज का युद्ध या बिलग्राम का युद्ध मुग़ल बादशाह हुमायूँ और सूर साम्राज्य या सूरी साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह सूरी के मध्य 17 मई 1540 ईस्वी को हुआ था। इस युद्ध के परिणामस्वरूप मुग़ल बादशाह हुमायूँ शेरशाह सूरी द्वारा पराजित हुआ और हुमायूँ को भारत छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा.
बादशाह हुमायूं को यह मालूम था की शेरशाह की सेना उसकी सेना के मुकाबले ज्यादा ताकतवर एवं शक्तिशाली है और शेरशाह को इस लड़ाई में पराजित करना आसान नहीं है। इसी कारण उसने अपने भाइयों को इस युद्ध में मिलाने का प्रयास किया; परंतु उसके भाई इस युद्ध में उसके साथ सम्मिलित ना हुए बल्कि वह हुमायूं की युद्ध की तैयारियों में अनेक तरह से रुकावटें डालने लगे। शेरशाह एक कुशल शासक था और उसको यह ज्ञात हो गया था कि हुमायूं के भाई कन्नौज के युद्ध में उसका साथ नहीं देने वाले हैं जिससे वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। जैसे ही शेरशाह को हुमायूं के भाइयों के बारे में ज्ञात हुआ उसने अपनी सेना एवं अफ़ग़ान साथियों के साथ हुमायूं पर आक्रमण करने का फैसला किया। हुमायूं भी उसका सामना करने के लिए तैयार था।
इस प्रकार उत्तर भारत में द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह द्वारा बाबर के चंदेरी अभियान के दौरान कहे गये ये शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए जब उसने कहा था कि- “अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा, तो मै मुग़लों को सरलता से भारत से बाहर निकाला दूँगा।”
इस युद्ध के बाद बादशाह हुमायूं बिना राज्य का राजा था और काबुल तथा कंधार कामरान के हाथों में थे।
हुमायूं की सेना ने छोड़ दिया साथ
बिना युद्ध के इतने दिनों तक टिके रहने से शेरशाह को कोई नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि शेरशाह पूरी तैयारी के साथ आया था, लेकिन हुमायूं की सेना में राशन की कमी होने लगी, जिसके कारण उसके सिपाही धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ कर जाने लगे। हुमायूं के सेनापति हिन्दू बेग चाहते थे कि वह गंगा के उत्तरी तट से जौनपुर तक अफगानों को वहां से खदेड़ दे, परन्तु हुमायूं ने अफगानों की गतिविधियों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। इसी समय हुमायूँ के शिविर में एक अजीब घटना घटी। इसी समय मोहम्मद जमा मिर्जा अपने पुत्र के साथ हुमायूँ के शिविर को छोड़कर अन्यत्र चला गया। इस घटना ने हुमायूँ के सैनकों में असंतोष पैदा कर दिया। अब हुमायूँ के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उसने युद्ध करना ही उचित समझा और नदी पार किया। लेकिन जैसी ही उसी सेना नदी में उतरी वैसे ही वर्षा शुरू हो गई जिससे हुमायूँ की सेना अस्त व्यस्त हो गई. इससे शेरशाह सूरी को बढ़िया मौका मिल गया और उसने अवसर का लाभ उठाने में तनिक भी देर नहीं किया और हुमायूँ की सेना पर टूट पड़ा और युद्ध में विजय प्राप्त किया.
इस युद्ध में (Battle of Bilgram in Hindi) हुमायूँ जैसे तैसे अपनी जान बचकर भागने में सफल रहा. इसके बाद हुमायूँ का भारत से निर्वासन काल शुरू हुआ। कन्नौज के युद्ध ने हुमायूँ को एक निर्वासित जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया और जब तक शेरशाह जीवित रहा तब तक हुमायूँ लौट कर नहीं आया.
युद्ध के बाद अफगान अमीरों ने शेर खां से सम्राट पद स्वीकार करने का प्रस्ताव किया। शेर खां ने सर्वप्रथम अपना राज्याभिषेक कराया। बंगाल के राजाओं के छत्र उसके सिर के ऊपर लाया गया और उसने शेरशाह आलम सुल्तान उल आदित्य की उपाधि धारण की। इस हार ने बाबर द्वारा बनाये गये मुगल साम्राज्य का अंत कर दिया और उत्तर भारत पर सूरी साम्राज्य की शुरुआत की।
बिलग्राम के युद्ध में हुमायूँ की पराजय के कारण
हुमायूँ की पराजय (Battle of Bilgram in Hindi) का कई कारण थे. आइये देखते हैं कि आखिर हुमायूँ कैसे पराजित हुआ और इसके उपरांत उसे कैसे एक निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा.
- हुमायूँ शारीरिक, मानसिक, और चारित्रिक तीनों रूपों में शेरशाह से कमजोर था.
- हुमायूँ ने युद्ध की योजनाओं पर कभी अमल नहीं किया ना ही उसने कभी समय के महत्व को समझा. वह हमेशा आमोद प्रमोद और नशे में रहता था और समय का दुरुपयोग करता था.
- हुमायूँ के अन्दर ना तो एक अच्छे योद्धा ना ही एक अच्छे सेनानायक का गुण था. वह सेना को संगठित ही नहीं कर पाता था।
- बिलग्राम के युद्ध में दोनों सेनाएं गंगा तट पर १ महीने से एकत्रित थी. शेरशाह सूरी जहाँ बहुत अच्छी तैयारी के साथ आया था वहीँ हुमायूँ की सेना में राशन की कमी पड़ने लगी. इसकी वह से युद्ध से पूर्व ही उसकी सेना में फूट पड़ गई, और सैनिक सेना छोड़कर जाने लगे थे।
- राशन की कमी के चलते उसकी बची खुची सेना भी काफी दुर्बल अवस्था में थी।
- हुमायूँ के विपरीत शेरशाह सूरी एक महान सेनानायक था और उसके नेतृत्व में अफगानों का उत्कर्ष हो रहा था।
- बिलग्राम के युद्ध से पहले शेरशाह सूरी और गुजरात के शासक बहादुरशाह का गठबंधन हो गया था। हुमायूँ का पहले गुजरात के शासक बहादुरशाह से युद्ध हो चूका था जिसमे हुमायूँ कई भूल कर चुका था और उसकी सारी कमजोरियां बहादुरशाह को पता थी जिसका फायदा शेरशाह को हुआ।
- कन्नौज के युद्ध के लिए दोनों पक्षों की सेनाओं ने कन्नौज के पास ही गंगा के किनारे अपना-अपना पड़ाव डाला। इतिहासकारों के अनुसार दोनों सेनाओं की संख्या लगभग दो लाख थी और दोनों सेनाएं लगभग एक महीने तक बिना युद्ध किए वहीं पर अपना पड़ाव डाले रहीं। शेरशाह को इस बात से कोई हानि नहीं थी परंतु हुमायूं की सेना के सिपाही धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ कर चले जा रहे थे, इसी कारणवश हुमायूं ने कन्नौज के युद्ध को प्रारंभ करना ही उचित समझा।
- इस युद्ध में अफ़ग़ानी सेना ने हुमायूं की सेना को बड़ी आसानी से पराजित कर दिया, क्योंकि उसके सैनिक इस युद्ध में डटकर नहीं लड़े।
- अफ़ग़ान सेना ने भागती हुई मुग़ल सेना को नदी की ओर पीछा किया और कई सैनिकों को मार गिराया जिससे उसकी बड़ी क्षति हुई। बहुत से मुग़ल सैनिक नदी में डूब गए।
- कन्नौज की लड़ाई ने मुग़लों और शेरशाह सूरी के बीच मामले का फैसला कर दिया। इस युद्ध के बाद बादशाह हुमायूं बिना राज्य का राजा था और काबुल तथा कंधार कामरान के हाथों में थे।
- इस युद्ध के पश्चात ही हुमायूं को अपनी राजगद्दी छोड़कर भागना पड़ा और दिल्ली का राज्य शेरशाह सूरी के अधिकार में आ गया।
- हुमायूँ ने शेरशाह के विरुद्ध जितने भी युद्ध किए उसमे किसी भी युद्ध में वो संगठित युद्ध नहीं कर पाया था।
- हुमायूँ एक नंबर का नशाखोर और चारित्रिक रूप से दुर्बल शासक था जो उसकी पराजय का कारण बना. Battle of Bilgram in Hindi
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