Anglo Afghan War in Hindi / आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध / अफगानियों और अंग्रेजों की जंग
आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध तीन युद्धों को सम्मिलित रूप से पहले सिर्फ अफ़ग़ान युद्ध (Anglo Afghan War in Hindi) के नाम से जाना जाता था। इतिहास में तीन अफ़ग़ान युद्ध (प्रथम युद्ध 1838-1842 ई., द्वितीय युद्ध 1878-1880 ई., तथा तृतीय युद्ध 1919 ई.) लड़े गये थे। अफ़ग़ानिस्तान की शुरुवाती लड़ाईयां सिर्फ ब्रिटिश राज के खिलाफ हुई थी इसलिए आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध के तीनों युद्धों को सम्मिलित रूप से पहले सिर्फ अफ़ग़ान युद्ध के नाम से जाना जाता था लेकिन 1980 के दशक में सोवियत संघ के साथ संघर्ष और 2001 में अमेरिका के साथ संघर्ष की वजह इन युद्धो के नाम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध कर दिये। आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध के तीन प्रमुख युद्ध निम्नलिखित हैं:
- प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842 ई.)
- द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1878-1880 ई.)
- तृतीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1919 ई.)
जब भारतवर्ष गुलाम था तथा भारत पर अंग्रेजों का शासन था तब भारत के पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान पर रूस का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ रहा था, और यह प्रभाव काफ़ी हद तक भारत के लिए ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था। रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए और अफ़ग़ानिस्तान को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानों के विरुद्ध अपनी भारतीय चौकी से तीन बार हमले किए। पहले युद्ध में अंग्रेजों को आसानी से विजय मिल गई, लेकिन उस पर नियंत्रण बनाये रखना कठिन हो गया। दूसरे युद्ध में विजय के लिए अंग्रेज़ों को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेज़ अफ़ग़ानिस्तान पर स्थायी क़ब्ज़ा तो नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने उसकी नीति पर नियंत्रण बनाये रखा। तृतीय और अंतिम युद्ध में अफ़ग़ानिस्तान की करारी हार हुयी और विवश होकर उनको ‘रावलपिण्डी की सन्धि’ (अगस्त, 1919 ई.) करनी पड़ी। इसके पश्चात अफ़ग़ानिस्तान और अंग्रेजों में मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गए और आगे कोई लड़ाई नहीं हुयी।
प्रथम आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध First Anglo Afghan War (1839–1842)
अफ़ग़ानिस्तान का भूतपूर्व अमीर शाहशुजा अंग्रेज़ों से पेंशन पाता था तथा पंजाब के लुधियाना नगर में रहता था। उस समय रूस के गुप्त समर्धन से फ़ारस की सेना ने अफ़ग़ानिस्तान के सीमावर्ती नगर हेरात को घेर लिया। हेरात बहुत सामरिक महत्त्व का नगर माना जाता था और उसे भारत का द्वार समझा जाता था। जब उस पर रूस की सहायता से फ़ारस ने क़ब्ज़ा कर लिया तो इंग्लैंड की सरकार ने उसे भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के लिए ख़तरा माना और अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया. हालांकि उस समय फ़ारस और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच में पंजाब में रणजीत सिंह और अफ़ग़ानिस्तान में दोस्त मुहम्मद का स्वतंत्र राज्य था।
द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध Second Anglo Afghan War (1878–1880)
द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (Anglo Afghan War in Hindi) वायसराय लॉर्ड लिटन प्रथम के शासन काल से प्रारम्भ होकर और उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड रिपन (1880-1884 ई.) के शासन काल में समाप्त हुआ। अफगान के अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु 1863 ई. में हो गई थी और उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया था. उत्तराधिकार का यह युद्ध (1863-1868 ई.) पांच वर्ष तक चला। इस बीच ब्रिटिश भारतीय सरकार ने पूर्ण निष्क्रियता की नीति का पालन किया और क़ाबुल की गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों में किसी का पक्ष नहीं लिया। अन्त में 1868 ई. में जब दोस्त महम्मद के तीसरे बेटे शेरअली ने क़ाबुल की गद्दी प्राप्त कर ली तो ब्रिटिश भारतीय सरकार ने उसको अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मान लिया। लेकिन इसी बीच मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बहुत बढ़ गया। रूस ने बुखारा पर 1866 में, ताशकंद पर 1867 में और समरकन्द पर 1868 ई. में अधिकार कर लिया। इस प्रकार रूस का प्रभुत्व बढ़ता ही जा रहा था। जिसके परिणाम स्वरुप अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पुन: आक्रमण कर दिया.
तृतीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध Third Anglo Afghan War (1919)
तृतीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध केवल दो महीने तक चला। भारत की ब्रिटिश सेना ने बमों, विमानों, बेतार के तार की संचार व्यवस्था और आधुनिक शस्त्रास्त्रों का प्रयोग करके अफ़ग़ानों को अपने सामने टिकने नहीं दिया और बुरी तरह हरा दिया। अफ़ग़ानों के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र नहीं थे। उन्हें मजबूर होकर शांति संधि के लिए झुकना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप अगस्त, 1919 ई. में रावलपिंडी की संधि हुई। रावलपिण्डी की संधि के बाद से ही आंग्ल-अफ़ग़ान संबंध प्राय: मैत्रीपूर्ण रहा, और एशिया में शांति स्थापित हो गई।
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