Akbar (अकबर का जीवन परिचय)

Ad:

http://www.hindisarkariresult.com/akbar
Akbar ka jeevan parichay

Akbar, Akbar ka jeevan parichay

अकबर का जीवन परिचय ( Akbar biography in Hindi)

अकबर का पूरा नाम जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर था. अकबर तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। भारतीय इतिहास में अकबर को मुगल साम्राज्य का सबसे महान सम्राट माना जाता है. अगर कीर्ति और लोकप्रियता की दृष्टि से देखें तो भारत की राजनीतिक इतिहास में केवल एक सम्राट ऐसा हुआ है जिसकी तुलना अकबर से की जा सकती है और वह सम्राट था मौर्य वंश का महान शासक सम्राट अशोक.

संक्षिप्त जीवनपरिचय

  • पूरा नाम: जलालउद्दीन मुहम्मद अकबर
  • जन्म: 15 अक्टूबर सन 1542 (लगभग)
  • जन्म भूमि: उमेरकोट, सिन्ध (पाकिस्तान)
  • मृत्यु तिथि: 27 अक्टूबर, सन 1605 (उम्र 63 वर्ष)
  • मृत्यु स्थान: फ़तेहपुर सीकरी, आगरा
  • पिता: हुमायूँ
  • माता: हमीदा बानो बेगम
  • पत्नी: रुक़ाइय्याबेगम, सलीमा सुल्तान बेगम और मरियम उज़-ज़मानि (हरका बाई) इत्यादि  
  • संतान: जहाँगीर के अलावा 5 पुत्र 7 बेटियाँ
  • शासन काल: 27 जनवरी, 1556 से 27 अक्टूबर, 1605 ई. तक
  • राज्याभिषेक: 16 फ़रवरी, 1556 कलानपुर के पास गुरदासपुर
  • प्रमुख युद्ध: पानीपत, हल्दीघाटी
  • राजधानी: फ़तेहपुर सीकरी आगरा, दिल्ली (पूर्व)
  • पूर्वाधिकारी: हुमायूँ
  • उत्तराधिकारी: जहाँगीर
  • राजघराना: मुग़ल
  • मक़बरा: सिकन्दरा, आगरा

नोट: मुगल साम्राज्य का संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। तैमूर लंग और चंगेज खां दोनों ने भारत में लूटपाट के उद्देश्य से लाखों लोगों का कत्लेआम किया था.इस प्रकार देखा जाए तो अकबर की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध लुटेरी और आक्रामक जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था।

जीवन परिचय

अकबर (Akbar) का जन्म पूर्णिमा की रात में हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा. उसका अकबर नाम उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने अकबर को बुरी नज़र से बचाने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे।

कुछ किवदंतियों के अनुसार यह भी माना जाता है कि भारत की जनता ने अकबर के सफल एवं कुशल शासन के लिए उसे अकबर नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ “महान” या बड़ा होता है। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म अर्थात अकबर महान, शहंशाह अकबर, या महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है।

अकबर का आरम्भिक जीवन

अकबर (Akbar) का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल उमेरकोट, सिंध (जो वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित है) में 23 नवंबर, 1542 को हुआ था। इस किले में बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए था। हुमायुं ने अपने इस पुत्र का नाम अपने देखे गए एक स्वप्न के अनुसार जलालुद्दीन मोहम्मद रखा।

अकबर का बचपन

अकबर (Akbar) के जन्म के समय उसका पिता हुमायूँ एक पश्तून नेता शेरशाह सूरी के डर से एक राजपूत राजा के यहाँ शरण लिए हुए था. लगातार अपनी स्थिति बदलते रहने के कारण फारस में अज्ञातवास के समय हुमायूँ अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ गया। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे। कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर बाद में काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी फिर भी सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था इसी कारण अकबर का मन पढाई-लिखाई में बिलकुल नहीं लगा.वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीतता था. 

जन्म से 8 वर्ष तक का होने तक अकबर का जीवन भारी अस्थिरता में बीता जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। बाद में जब हुमायूं का ध्यान इस ओर गया तब उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन एक अक्षम शिक्षक सिद्ध हुआ। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उनको भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि ही नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी। किन्तु उसको ज्ञानवर्धक कहानियां सुनना बहुत पसंद था कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, तब एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था। धीरे-धीरे समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं।

राजतिलक

शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र इस्लाम शाह और सिकंदर शाह की अक्षमता का फायदा उठाकर हुमायूँ ने 1555 में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया लेकिन इसके कुछ माह बाद ही 48 वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का अपनी पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण आकस्मिक निधन हो गया। तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ दिनों के लिये छुपाये रखा तथा सारी तैयारियां करने के बाद 14 फ़रवरी, 1556 को अकबर का राजतिलक कर दिया. 13 वर्षीय अकबर का पंजाब में गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर, सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है। उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में ही चला। इस प्रकार अकबर को सत्ता की बागडोर मात्र 13 साल की उम्र में मिल गई थी जब 16 फरवरी 1556 ईस्वी को वह राजा घोषित हुआ. उसके बाद 1605 ईसवी में में अपनी मृत्यु तक 50 वर्षों तक उसने अपने लंबे शासनकाल में न केवल मुगल साम्राज्य के विस्तार और दृढ़ता प्रदान की वरन भारत को सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक और कलात्मक रूप से समृद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया.

अकबर का राज्य विस्तार

अकबर (Akbar) के समय तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। 1563 में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, 1564-65 के बीच उज़बेक विद्रोह और 1566-67 में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। इसी बीच 1566 में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान दिल्ली के पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशासन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमू के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने के लिए पंजाब चल पड़ा।

अकबर का पंजाब गमन और दिल्ली की सत्ता-बदली

पंजाब जाते समय उसने दिल्ली का शासन मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर (Akbar) के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। कुछ प्रदेशो मे तो अकबर के पहुँचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की अनुपस्थिति मे हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की और इस तरह 6 अक्टूबर 1556 को हेमू ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया। इसी के साथ दिल्ली मे हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई।

दिल्ली में सत्ता की वापसी

अकबर को जब दिल्ली की पराजय का समाचार मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के सलाहकारो ने उसे काबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर और हेमू की सेना के बीच पानीपत मे युद्ध हुआ। यह युद्ध पानीपत का द्वितीय युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध मे विजय प्राप्त की। डा. आर.पी. त्रिपाठी ने पानीपत के द्वितीय युद्ध के परिणाम के बारे में लिखा है कि-हेमू की पराजय एक दुर्घटना थी, जबकि अकबर की विजय एक दैवीय-संयोग था। इस विजय से अकबर को 1500 हाथी मिले जो बाद में सिकंदर शाह सूरी से युद्ध के समय काम आए। सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया।

अकबर का साम्राज्य विस्तार

दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को 1562 में, गुजरात को 1572 में, बंगाल को 1574 में, काबुल को 1581 में, कश्मीर को 1586 में और खानदेश को 1601 में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। अकबर का सबसे प्रसिद्द युद्ध मेवाड़ के राणा प्रताप से हुआ जिन्होंने 1568 ईस्वी में चित्तौड़ की हार के बावजूद कभी समर्पण नहीं किया और अपने लोगों के सहयोग से आजीवन संघर्ष करते रहे. चित्तौड़ के पतन के बाद रणथंभौर जैसे सशक्त दुर्ग पर अकबर ने फतह हासिल की जिसके फलस्वरूप बीकानेर जैसलमेर सहित अन्य राजपूत राज्यों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।

अकबर (Akbar) यह नही चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। सन 1585 में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन 1599 में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अन्त तक यहीं से शासन संभाला।  

अकबर की विस्तारवादी नीतियां

अकबर (Akbar) ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए और उसको दृढ़ता प्रदान करने के लिए राजपूत राजाओं से मित्रता करने की अपने पिता हुमायूं की नीति का विस्तार किया। आमेर के राजा भारमल ने अपनी छोटी बेटी हरखा बाई का विवाह अकबर से कर दिया. अकबर ने अपनी हिंदू पत्नियों को धार्मिक स्वतंत्रता दी और उनके माता-पिता और सगे संबंधियों को ऊंचे ऊंचे ओहदों पर रखा। भारमल को उसने एक बड़ा सरदार बना दिया उसके बेटे भगवानदास को पाँच हजारी का दर्जा दिया और पोते मानसिंह को सबसे ऊंचा सात हजारी का दर्जा प्रदान किया। उसने अपने एक बच्चे की देखभाल के लिए भारमल की पत्नियों की देखरेख में आमेर भेज दिया।

जिन राजपूती परिवारों में अकबर के शादी विवाह के संबंध नहीं थे उनसे भी अकबर ने मित्रता स्थापित की. रणथंभौर के राव सुरजन हांडा को गढ़ कटंगा की जिम्मेदारी सौंपी और उसको दो हजारी का दर्जा प्रदान किया। अकबर की सफलता का एक और बहुत बड़ा कारण था उसकी उदारता और उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का सुखद संयोग। अकबर ने 1564 में जजिया कर हटा दिया इसी प्रकार बनारस, इलाहाबाद जैसे तीर्थ स्थानों में लगने वाला तीर्थ कर भी हटा दिया गया. युद्ध बंदियों का जबर्दस्ती मुसलमान बनाने के चलन को भी समाप्त कर दिया।

हालांकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार अकबर (Akbar) के दरबारी हिन्दू राजाओं की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी और वो अकबर के गुलाम मात्र ही थे. इतिहासकार दशरथ शर्मा लिखते हैं कि हम अकबर को उसके दरबार के इतिहास और वर्णनों जैसे अकबरनामा, आदि के अनुसार महान कहते हैं। लेकिन यदि कोई अन्य उल्लेखनीय कार्यों की ओर देखे, जैसे दलपत विलास, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने हिन्दू सामंतों से कितना अभद्र व्यवहार किया करता था। अकबर के नवरत्न राजा मानसिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण को अकबर की अनुमति के बाद किए जाने के कारण हिन्दुओं ने उस मंदिर में जाने का बहिष्कार कर दिया। कारण साफ था, कि राजा मानसिंह के परिवार के अकबर से वैवाहिक संबंध थे। अकबर के हिन्दू सामंत उसकी अनुमति के बगैर मंदिर निर्माण तक नहीं करा सकते थे। बंगाल में राजा मानसिंह ने एक मंदिर का निर्माण बिना अनुमति के आरंभ किया, तो अकबर ने पता चलने पर उसे रुकवा दिया और 1595 में उसे मस्जिद में बदलने के आदेश दिए।

हल्दीघाटी का युद्ध

उस समय पूरे राजस्थान में मात्र एक ऐसा राज्य था जो मुगल अधीनता स्वीकार नहीं कर रहा था और वह था मेवाड़। अकबर ने एक के बाद एक अनेक दूतमंडल महाराणा प्रताप के पास भेज कर उनको राजी करने की कोशिश की लेकिन मानसिंह की मध्यस्था के बावजूद बात नहीं बनी। एक बार तो राणा प्रताप ने अपने बेटे अमर सिंह को मुगल दरबार में भगवान दास के साथ भेज भी दिया था लेकिन स्वाभिमानी राणा प्रताप अकबर (Akbar) के सामने खुद उपस्थित होकर व्यक्तिगत रूप से उसका सम्मान प्रकट नहीं करना चाहते थे इसलिए कोई समझौता नहीं हुआ। इसके पश्चात हल्दीघाटी में दोनों के बीच घमासान लड़ाई हुई. अकबर को राजपूतों का सहयोग प्राप्त था लेकिन राणा प्रताप की सेना में भी उनकी ओर से कुछ मुसलमान लड़ रहे थे. राजपूत योद्धाओं के अलावा राणा प्रताप की सेना में अफ़गानों की एक टुकड़ी भी हकीम खां के साथ थी।

अकबर का प्रशासन

सन 1560 में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को नपदमुक्त करके मक्का की तीर्थयात्रा के लिए भेज दिया। बैरम खाँ पर मक्का जाते समय गुजरात में अफगानों के एक दल ने आक्रमण कर दिया. मुबारक खाँ नामक एक अफगान ने जिसके पिता को बैरम खाँ ने मच्छीवाङा (1555 ई.) के युद्ध में कत्ल किया था मार डाला। बैरम खाँ की मृत्यु के बाद अकबर ने बैरम खाँ की विधवा सलीमा बेगम से निकाह कर लिया तथा उसके पुत्र अब्दुर्रहीम को अपने नवरत्नों में शामिल करके खान-खाना की उपाधि दी। अबुल फजल ने बैरम खाँ के पतन में सबसे अधिक उत्तरदायी अकबर की धाय माँ माहम अनगा को ठहराया है।

अब अकबर (Akbar) के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे- शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (1563), उज़बेक विद्रोह (1564-65) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (1566-67) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामन्तों की संख्या बढ़ाई। सन 1562 में आमेर के शासक से उसने समझौता किया – इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया – हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन 1563)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया।

अकबर ने मनसबदारी प्रथा के तहत बड़े-बड़े सरदारों के मातहत सेना की टुकड़ियों में ऐसी व्यवस्था रखी कि हर अमीर या सरदार की टुकड़ी में मुगल, पठान हिंदुस्तानी और राजपूत चारों जातियों के सिपाही हो। बादशाह रोज सवेरे प्रजा को झरोखा दर्शन देता था और बहुत सारी अर्जियां वहीं निपटा देता था बाकी मामले दरबारे आम में हल किए जाते थे।

अकबर की कामुकता

तमाम इतिहासकारों ने अकबर (Akbar) को महान अकबर कहा है और उसकी अच्छाइयों को ही चित्रित किया है लेकिन यहाँ पर यह जानना भी जरुरी है कि अकबर में कुछ मानवोचित कमजोरियां भी थी जो उसके चारित्रिक लंपटता को दर्शाती हैं. तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को अकबर का संरक्षण प्राप्त था। उसकी एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमे बहुत सी स्त्रियाँ थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवा कर वहां रखा गया था। उस समय में सती प्रथा भी जोरों पर थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, उसे बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते और सम्राट की आज्ञा बताकर उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था। हालांकि इस प्रकरण को दरबारी इतिहासकारों ने कुछ इस ढंग से कहा है कि “इस प्रकार बादशाह सलामत ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया।”

अपनी जीवनी में अकबर (Akbar) ने स्वयं लिखा है– यदि मुझे पहले ही यह बुधिमत्ता जागृत हो जाती तो मैं अपनी सल्तनत की किसी भी स्त्री का अपहरण कर अपने हरम में नहीं लाता। इस बात से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि वह सुन्दरियों का अपहरण करवाता था। इसके अलावा अपहरण न करवाने वाली बात की निरर्थकता भी इस तथ्य से ज्ञात होती है कि न तो अकबर के समय में और न ही उसके उतराधिकारियो के समय में हरम बंद हुई थी।

आईने अकबरी के अनुसार अब्दुल कादिर बदायूंनी कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियो की पत्नियां अथवा अन्य स्त्रियां जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करती हैं तो उन्हें पहले अपने इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है; जिन्हें यदि योग्य समझा जाता है तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती है। अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करें जिसे अकबर ने खुदारोज (प्रमोद दिवस) नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था। गोंडवाना की रानी दुर्गावती पर भी अकबर की कुदृष्टि थी। उसने रानी को प्राप्त करने के लिए उनके राज्य पर आक्रमण भी किया था। युद्ध के दौरान वीरांगना रानी दुर्गावती ने अनुभव किया कि उसे मारने की नहीं वरन बंदी बनाने का प्रयास किया जा रहा है, तो उसने वहीं आत्महत्या कर ली। तब अकबर ने उसकी बहन और पुत्रबधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। अकबर (Akbar) ने यह प्रथा भी चलाई थी कि उसके पराजित शत्रु अपने परिवार एवं परिचारिका वर्ग में से चुनी हुई महिलायें उसके हरम में भेजे।

मृत्यु

अकबर (Akbar) के बारे में बृहद रूप से जानकारी इकठ्ठा करने पर यह पता चलता है कि उसका व्यक्तित्व बहुआयामी था. वह एक तरफ न्यायपालक, उदार, सर्व धर्म सम्भावी और मित्रवत होने का दिखावा करता था तो दूसरी तरफ क्रूर, हत्यारा, कामान्ध व्यक्ति भी था जो यह जानता था कि भारत में लम्बे समय तक राज करने के लिए यहाँ के मूल निवासियों को उचित एवं बराबरी का स्थान देना बहुत जरुरी है। शायद यही कारण रहा होगा कि जब इसकी मृत्यु 27 अक्टूबर 1605 को फतेहपुर सीकरी, आगरा में हुयी तो  उसकी अन्त्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया।

Ad:

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*


This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.