Muharram 2020: जानिए क्यों मनाया जाता है मुहर्रम?

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Muharram

Muharram/ मुहर्रम या मोहर्रम (Moharram) इस्लामी वर्ष यानी हिजरी वर्ष का पहला महीना है। हिजरी वर्ष की शुरुवात इसी महीने से होती है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। उनमें से दो महीने मुहर्रम से पहले आते हैं। यह दो मास हैं जीकादा व जिलहिज्ज। इस महिने की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा (Day Of Ashura) कहा जाता है, इसी दिन को अंग्रेजी कैलेंडर में मुहर्रम या मोहर्रम कहा गया है।

इस साल यानि सन 2020 का मुहर्रम 29 अगस्त को है।

अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस महीने को अल्लाह का महीना कहा है। साथ ही इस महीने में रोजा रखने की खास अहमियत बयान की है। मुख्तलिफ हदीसों, हजरत के कौल (कथन) व अमल (कर्म) से मुहर्रम की पवित्रता व इसकी अहमियत का पता चलता है। एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि रमजान के अलावा सबसे उत्तम रोजे वे हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं। यह कहते समय नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह अनिवार्य नमाजों के बाद सबसे अहम नमाज तहज्जुद की है, उसी तरह रमजान के रोजों के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम (Muharram)  के हैं।

क्यों मनाया जाता है मुहर्रम (Muharram)?

मोहर्रम (Moharram) या मुहर्रम (Muharram) एक मातम का त्यौहार है। यह मुहम्मद साहब के छोटे नवासे (नाती) इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है। दरअसल मोहर्रम के महीने में इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे (नाती) इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयाइयों का कत्ल कर दिया गया था। हजरत इमाम हुसैन इराक के शहर करबला में यजीद की फौज से लड़ते हुए शहीद हो गए थे।

क्या थी इमाम हुसैन और यजीद में जंग की वजह?

मुहम्मद साहब के इस्लाम में सिर्फ एक ही खुदा की इबादत करने के लिए कहा गया है। छल-कपट, झूठ, मक्कारी, जुआ, शराब, जैसी चीजें इस्लाम में हराम बताई गई हैं। हजरत मोहम्मद ने इन्हीं निर्देशों का पालन किया और इन्हीं इस्लामिक सिद्घान्तों पर अमल करने की हिदायत सभी मुसलमानों और अपने परिवार को भी दी। दूसरी तरफ इस्लाम का जहां से उदय हुआ,वहाँ मदीना से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी गुण इस्लाम के विपरीत थे, वह शाम की गद्दी पर बैठा।

यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है। लेकिन यजीद जैसे शख्स को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इन्कार कर दिया था क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे।

इस हाल में तय हुई थी जंग

इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे. एक रात को इमाम हुसैन उनका पूरा परिवार तथा काफिला इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ करबला के पास फरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर रूक गया। उसी समय यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने शर्तें रखीं जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से साफ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी। यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें नदी से पानी लेने की इजाजत तक नहीं दी।

कर्बला की जंग (The Battle of Karbala in Hindi)

इमाम हुसैन जंग नहीं चाहते थे क्योंकि उनके काफिले में केवल 72 लोग शामिल थे। जिसमें छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। यह तारीख एक मुहर्रम (Muharram ) थी, और गर्मी का वक्त था। यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि आज भी इराक में गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है।

इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। सात मोहर्रम (Muharram)  तक इमाम हुसैन और उनके परिवार के पास जितना खाना और पानी था वह खत्म हो चुका था। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवारजन और अनुनायी भूखे प्यासे रहे।

10 मुहर्रम (Muharram)  को इमाम हुसैन की तरफ से एक-एक करके गए हुए सारे शख्सों ने यजीद की फौज से जंग की। जब इमाम हुसैन के सारे साथी शहीद हो गए तब असर (दोपहर) की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वह भी मारे गए। इस जंग में इमाम हुसैन के एक बेटे जैनुलआबेदीन जिंदा बचे क्योंकि 10 मोहर्रम को वह बीमार थे और बाद में उन्हीं से मुहमम्द साहब की पीढ़ी चली।

इसी कुरबानी की याद में मुहर्रम (Muharram) मनाया जाता है। करबला यानि आज का सीरिया का यह वाकया इस्लाम की हिफाजत के लिए हजरत मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है। इमाम हुसैन और उनके पुरुष साथियों व परिजनों को कत्ल करने के बाद यजीद ने हजरत इमाम हुसैन के परिवार की औरतों को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया।

इमाम हुसैन की मौत के बाद

इमाम हुसैन का कत्ल करने के बाद यजीद ने खुद को विजेता बताते हुए हुसैन के लुटे हुए काफिले की नुमाइश लगाया और देखने वालों को यह बताया कि ये लोग यजीद के शासन के खिलाफ गए थे इसलिए इनका ये हश्र हुआ है। यजीद ने मुहमम्द के घर की औरतों पर बेइंतहा जुल्म किए। उन्हें कैदखाने में रखा जहां हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की (सीरिया) कैदखाने में ही मौत हो गई।

आज इस वाकये को 1400 से ज्यादा साल बीत चुके हैं लकिन आज भी इस्लाम के अनुयायी इमाम हुसैन की याद में, उनकी शाहदत की याद में रोजा रखते हैं और मुहर्रम का मातम मनाते हैं। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है।

मुहर्रम (Muharram) में क्या करते हैं?

करबला के शहीदों ने इस्लाम धर्म को नया जीवन प्रदान किया था आज भी बहुत सारे मुसलमान इस माह में पहले 10 दिनों के रोजे रखते हैं। जो लोग 10 दिनों के रोजे नहीं रख पाते, वे 9 और 10 तारीख के रोजे रखते हैं। पैगंबर मुहम्मद के नाती की शहादत तथा करबला के शहीदों के बलिदानों को याद करते हैं।

आज के दिन बहुत सारे मुसलमान युवा, किशोर और यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी मातम मनाते हुए अपने शरीर को चोट पहुंचाते हैं और इमाम हुसैन की याद में खून बहाते हैं।

ताज़िया का जुलूस (Tajiya ka joolus)

12वीं शताब्दी में ग़ुलाम वंश के पहले शासक कुतुब-उद-दीन ऐबक के समय से ही दिल्ली में इस मौक़े पर ताज़िये (मोहर्रम का जुलूस) निकाले जाते रहे हैं। इस दिन शिया मुसलमान इमामबाड़ों में जाकर मातम मनाते हैं और ताज़िया निकालते हैं। भारत के कई शहरों में मोहर्रम में शिया मुसलमान मातम मनाते हैं लेकिन लखनऊ इसका मुख्य केंद्र रहता है।

हालांकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ताजिये की शुरुआत तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक शिया संप्रदाय से था। दरअसल तैमूर मुहर्रम (Muharram) माह में हर साल इराक कर्बला जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था।

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अपने बादशाह तैमूर को खुश करने के लिए उसके दरबारिओं ने उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया। कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया।

तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर की जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगी। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इसको मनाने की परम्परा शुरू हो गयी. खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शिया संप्रदाय के लोग थे उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया।

तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शिया बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। (Muharram)

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