Funkaran kar re Kavita, फुंकरण कर रे समय के साँप, माखनलाल चतुर्वेदी (Makhanlal Chaturvedi) द्वारा लिखित कविता है.
फुंकरण कर, रे समय के साँप
कुंडली मत मार, अपने-आप।
सूर्य की किरणों झरी सी
यह मेरी सी,
यह सुनहली धूल;
लोग कहते हैं
फुलाती है धरा के फूल!
इस सुनहली दृष्टि से हर बार
कर चुका-मैं झुक सकूँ-इनकार!
मैं करूँ वरदान सा अभिशाप फुंकरण कर, रे समय के साँप !
Funkaran kar re Kavita
क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख।
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप।
किलकिलाहट की बाजी शहनाइयाँ ऋतुराज
नीड़-राजकुमार जग आये, विहंग-किशोर!
इन क्षणों को काटकर, कुछ उन तृणों के पास
बड़ों को तज, ज़रा छोटों तक उठाओ ज़ोर।
कलियाँ, पत्ते, पहुप, सबका नितान्त अभाव
प्राणियों पर प्राण देने का भरे से चाव
चल कि बलि पर हो विजय की माप। फंकुरण कर, रे समय के साँप।।
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