Giri par chadhte Kavita (गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीरे कविता)- माखनलाल चतुर्वेदी

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Giri par chadhte Kavita, गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीरे, माखनलाल चतुर्वेदी (Makhanlal Chaturvedi) द्वारा लिखित कविता है.

सूझ ! सलोनी, शारद-छौनी,
यों न छका, धीरे-धीरे !
फिसल न जाऊँ, छू भर पाऊँ,
री, न थका, धीरे-धीरे !

कम्पित दीठों की कमल करों में ले ले,
पलकों का प्यारा रंग जरा चढ़ने दे,
मत चूम! नेत्र पर आ, मत जाय असाढ़,
री चपल चितेरी! हरियाली छवि काढ़ !

ठहर अरसिके, आ चल हँस के,
कसक मिटा, धीरे-धीरे !

झट मूँद, सुनहाली धूल, बचा नयनों से
मत भूल, डालियों के मीठे बयनों से,
कर प्रकट विश्व-निधि रथ इठलाता, लाता
यह कौन जगत के पलक खोलता आता?

Giri par chadhte Kavita

तू भी यह ले, रवि के पहले,
शिखर चढ़ा, धीरे-धीरे।

क्यों बाँध तोड़ती उषा, मौन के प्रण के?
क्यों श्रम-सीकर बह चले, फूल के, तृण के?
किसके भय से तोरण तस्र्-वृन्द लगाते?
क्यों अरी अराजक कोकिल, स्वागत गाते?

तू मत देरी से, रण-भेरी से
शिखर गुँजा, धीरे-धीरे।

फट पड़ा ब्रह्य! क्या छिपें? चलो माया में,
पाषाणों पर पंखे झलती छाया में,
बूढ़े शिखरों के बाल-तृणों में छिप के,
झरनों की धुन पर गायें चुपके-चुपके

हाँ, उस छलिया की, साँवलिया की,
टेर लगे, धीरे-धीरे।

तस्र्-लता सींखचे, शिला-खंड दीवार,
गहरी सरिता है बन्द यहाँ का द्वार,
बोले मयूर, जंजीर उठी झनकार,
चीते की बोली, पहरे का `हुशियार’!

मैं आज कहाँ हूँ, जान रहा हूँ,
बैठ यहाँ, धीरे-धीरे।

Giri par chadhte Kavita

आपत का शासन, अमियों? अध-भूखे,
चक्कर खाता हूँ सूझ और मैं सूखे,
निर्द्वन्द्व, शिला पर भले रहूँ आनन्दी,
हो गया क़िन्तु सम्राट शैल का बन्दी।

तू तस्र्-पुंजों, उलझी कुंजों से
राह बता, धीरे-धीरे।

रह-रह डरता हूँ, मैं नौका पर चढ़ते,
डगमग मुक्ति की धारा में, यों बढ़ते,
यह कहाँ ले चली कौन निम्नगा धन्या !
वृन्दावन-वासिनी है क्या यह रवि-कन्या?

यों मत भटकाये, होड़ लगाये,
बहने दे, धीरे-धीरे
और कंस के बन्दी से कुछ
कहने दे, धीरे-धीरे !

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माखनलाल चतुर्वेदी की कुछ प्रतिनिधि कवितायेँ

एक तुम हो   लड्डू ले लो   दीप से दीप जले  
मैं अपने से डरती हूँ सखि   कैदी और कोकिला   कुंज कुटीरे यमुना तीरे  
गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीरे सिपाही वायु
वरदान या अभिशाप?   बलि-पन्थी से   जवानी
अमर राष्ट्र   उपालम्भ   मुझे रोने दो  
तुम मिले   बदरिया थम-थमकर झर री ! यौवन का पागलपन  
झूला झूलै री   घर मेरा है?   तान की मरोर  
पुष्प की अभिलाषा   तुम्हारा चित्र   दूबों के दरबार में  
बसंत मनमाना   तुम मन्द चलो   जागना अपराध  
यह किसका मन डोला   चलो छिया-छी हो अन्तर में   भाई, छेड़ो नही, मुझे  
उस प्रभात, तू बात न माने   ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा   मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक  
आज नयन के बँगले में   यह अमर निशानी किसकी है?   मचल मत, दूर-दूर, ओ मानी  
अंजलि के फूल गिरे जाते हैं   क्या आकाश उतर आया है   कैसी है पहिचान तुम्हारी  
नयी-नयी कोपलें   ये प्रकाश ने फैलाये हैं   फुंकरण कर, रे समय के साँप  
संध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं   जाड़े की साँझ   समय के समर्थ अश्व    
मधुर! बादल, और बादल, और बादल   जीवन, यह मौलिक महमानी   उठ महान  
ये वृक्षों में उगे परिन्दे   बोल तो किसके लिए मैं   वेणु लो, गूँजे धरा  
इस तरह ढक्कन लगाया रात ने   गाली में गरिमा घोल-घोल   प्यारे भारत देश  
साँस के प्रश्नचिन्हों, लिखी स्वर-कथा   किरनों की शाला बन्द हो गई चुप-चुप   गंगा की विदाई  
वर्षा ने आज विदाई ली   ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें    

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