Chandragupt Maurya (चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन परिचय)

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Chandragupt Maurya

Chandragupt Maurya biography in Hindi/ प्राचीन भारत के महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) का जन्म 340 ईसा पूर्व में हुआ था। ये मौर्य साम्राज्य के संस्थापक थे जिन्होंने 24 वर्षों तक शासन किया। इनका शासन काल 322-298 ईसा पूर्व (BCE) तक माना जाता है। ये सम्राट बिन्दुसार के पिता और महान सम्राट अशोक के दादाजी थे। हाँ हम उसी सम्राट अशोक की बात कर रहे हैं जिसके शासन काल में मौर्य साम्राज्य अपने सम्पूर्ण गौरव में था और भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा साम्राज्य तथा विश्व के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक था।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) से पहले भारत

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) से पहले भारत छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्यों का एक समूह था। सिर्फ एक मगध साम्राज्य ही ऐसा था जिसका शासन लगभग समस्त उत्तर भारत पर था जहाँ पर नन्द वंश का शासन था। चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के पहले ऐसे शासक थे जिन्होंने सब से पहले समस्त भारत को एकता के सूत्र में पिरोया और पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफ़ल रहे।

मेगस्थनीज ने चार साल तक चन्द्रगुप्त मौर्य की सभा में एक यूनानी राजदूत के रूप में सेवाएँ दी। उसने अपने ग्रीक और लैटिन लेखों में , चंद्रगुप्त मौर्य को क्रमशः सैंड्रोकोट्स और एंडोकॉटस नाम से वर्णित किया।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) का उदय

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) प्राचीन भारत के इतिहास में एक महान सम्राट के रूप में जाने जाते हैं। चन्द्रगुप्त के सिहासन संभालने से पहले, महान यूनानी योद्धा सिकंदर ने उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था लेकिन 324 ईसा पूर्व में उसकी सेना में विद्रोह हो गया और उसकी सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। इसकी वजह से भारत, ग्रीक और स्थानीय शासकों द्वारा शासित भारतीय उपमहाद्वीप वाले क्षेत्रों की विरासत सीधे तौर पर चन्द्रगुप्त ने संभाली।

चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (जिसे कौटिल्य और विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है, जौ चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री भी थे) के साथ, एक नया साम्राज्य बनाया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने राज्यचक्र के सिद्धांतों को लागू किया, एक बड़ी सेना का निर्माण किया और अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना भी जारी रखा।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) का धर्म प्रेम

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) ने अपने जीवन के उत्तर काल में जैन धर्म स्वीकार कर लिया और समस्त धन वैभव तथा राज्य को छोड़ कर जैन साधुओं के साथ दक्कन क्षेत्र (जो आज कर्नाटक नाम से जाना जाता है) के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर चले गए।

श्रवणबेलगोला से मिले शिलालेखों के अनुसार, चंद्रगुप्त अपने अंतिम दिनों में जैन-मुनि हो गए। चन्द्र-गुप्त अंतिम मुकुट-धारी मुनि हुए, उनके बाद और कोई मुकुट-धारी (शासक) दिगंबर-मुनि नहीं हुए। अतः चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रगुप्त स्वामी भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोल गए थे। वहीं उन्होंने उपवास द्वारा शरीर त्याग किया। इनकी मृत्यु 298 ईसा पूर्व में हुई। श्रवणबेलगोल में जिस पहाड़ी पर वे रहते थे, उसका नाम चंद्रगिरि है और वहीं उनका बनवाया हुआ ‘चंद्रगुप्तबस्ति’ नामक मंदिर भी है।

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) का वंश

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) के वंशादि के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। जो जानकारियाँ भी हैं उनमे भी बहुत मतभेद है।

  • हिंदू साहित्य पंरपरा उनको नंदों से संबद्ध बताती है।
  • जैन ग्रंथों के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य मयूरपोषकों के एक ग्राम के मुखिया की पुत्री से उत्पन्न थे।
  • मध्यकालीन अभिलेखों के साक्ष्यानुसार मौर्य सूर्यवंशी मांधाता से उत्पन्न थे।
  • बौद्ध साहित्य में मौर्य क्षत्रिय कहे गए हैं।
  • महावंश चंद्रगुप्त को मोरिय (मौर्य) खत्तियों से पैदा हुआ बताता है।
  • दिव्यावदान में चन्द्रगुप्त के पुत्र सम्राट बिंदुसार स्वयं को मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं। सम्राट अशोक भी स्वयं को क्षत्रिय बताते हैं।
  • 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व  तक उत्तर भारत आठ छोटे छोटे गाणराज्यों में बंटा था। मोरिय पिप्पलि वन के शासक, गणतांत्रिक व्यवस्था वाली जाति के सिद्ध होते हैं। पिप्पलि वन ई.पू. छठी शताब्दी में नेपाल की तराई में स्थित रुम्मिनदेई से लेकर आधुनिक देवरिया जिले के कसया प्रदेश तक को कहते थे। मगध साम्राज्य की प्रसारनीति के कारण इनकी स्वतंत्र स्थिति शीघ्र ही समाप्त हो गई। यहीं कारण था कि चंद्रगुप्त का मयूरपोषकों, चरवाहों तथा लुब्धकों के संपर्क में पालन हुआ।
  • चन्द्रगुप्त मौर्य बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे और परंपरा के अनुसार समवयस्क बालकों का सम्राट बनकर उनपर शासन करते थे। ऐसे ही किसी अवसर पर चाणक्य की दृष्टि उनपर पड़ी, चाणक्य ने उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को पहचाना और उनको तक्षशिला भेज दिया जहाँ उन्हें राजोचित शिक्षा दी गई। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन भी कहता है कि सांद्रोकात्तस (चंद्रगुप्त) का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) की विजयगाथा

सिकंदर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत धनानंद द्वारा शासित था। नंद सम्राट घनानंद अपनी निरंकुशता और क्रूरता के कारण जनता में अप्रिय था। उसने चाणक्य का भी अपमान किया था जिससे चाणक्य बहुत क्षुब्ध थे और उससे बदला लेना चाहते थे। ब्राह्मण चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने राज्य में व्याप्त असंतोष का सहारा ले नंद वंश को खत्म करने का निश्चय किया। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए चाणक्य और चंद्रगुप्त ने एक विशाल विजयवाहिनी का प्रबंध किया। ब्राह्मण ग्रंथों में नंदोन्मूलन का श्रेय चाणक्य को दिया गया है।

जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त डाकू था और छोटे-बड़े सफल हमलों के पश्चात उसने साम्राज्यनिर्माण का निश्चय किया। अर्थशास्त्र में कहा है कि सैनिकों की भर्ती चोरों, म्लेच्छों, आटविकों तथा शस्त्रोपजीवी श्रेणियों से करनी चाहिए। मुद्राराक्षस से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने हिमालय प्रदेश के राजा पर्वतक से संधि की। चंद्रगुप्त की सेना में शक, यवन, किरात, कंबोज, पारसीक तथा वाल्मिक भी रहे होंगे। प्लूटार्क के अनुसार सांद्रोकोत्तस (चन्द्रगुप्त) ने संपूर्ण भारत को 6,00,000 सैनिकों की विशाल वाहिनी द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया।

इसे भी पढ़ें: मौर्य साम्राज्य के द्वितीय शासक बिन्दुसार का जीवन परिचय

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) ने सर्वप्रथम अपनी स्थिति पंजाब में सदृढ़ की। जस्टिन के अनुसार सिकंदर की मृत्यु के उपरांत भारत ने सांद्रोकोत्तस (चन्द्रगुप्त) के नेतृत्व में दासता के बंधन को तोड़ फेंका तथा यवन राज्यपालों को मार डाला। चंद्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियान लगभग 323 ई.पू. में आरंभ किया होगा, किंतु उन्हें इस अभियान में पूर्ण सफलता 317 ई.पू. या उसके बाद मिली होगी, क्योंकि इसी वर्ष पश्चिम पंजाब के शासक क्षत्रप यूदेमस (Eudemus) ने अपनी सेनाओं सहित, भारत छोड़ा। चंद्रगुप्त के यवनयुद्ध के बारे में विस्तारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सफलता से उन्हें पंजाब और सिंध के प्रांत मिल गए।

आरंभ में चंद्रगुप्त ने नंदसाम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया, किंतु उन्हें शीघ्र ही अपनी त्रुटि का पता चल गया और नए आक्रमण सीमांत प्रदेशों से आरंभ हुए। अंतत: उन्होंने पाटलिपुत्र घेर लिया और धनानंद को मार डाला।

दक्षिण में साम्राज्य विस्तार

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) ने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में भी किया। मामुलनार नामक प्राचीन तमिल लेखक ने तिनेवेल्लि जिले की पोदियिल पहाड़ियों तक हुए मौर्य आक्रमणों का उल्लेख किया है। इसकी पुष्टि अन्य प्राचीन तमिल लेखकों एवं ग्रंथों से भी होती है। इतिहासकारों के अनुसार एक आक्रामक सेना में युद्धप्रिय कोशर लोग सम्मिलित थे। आक्रामक कोंकण से एलिलमलै पहाड़ियों से होते हुए कोंगु (कोयंबटूर) जिले में आए और यहाँ से पोदियिल पहाड़ियों तक पहुँचे। दुर्भाग्यवश उपर्युक्त उल्लेखों में इस मौर्यवाहिनी के नायक का नाम प्राप्त नहीं होता। किंतु, ‘वंब मोरियर’ से प्रथम मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त का ही अनुमान अधिक संगत लगता है।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya)का अंतिम युद्ध

सिकंदर की मृत्यु के बाद उसका पूर्व सेनापति तथा उसके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट् सेल्यूकस, सिकंदर की भारतीय विजय पूरी करने के लिये आगे बढ़ा, किंतु भारत की राजनीतिक स्थिति अब तक पूरी तरह से बदल चुकी थी। लगभग सारा क्षेत्र एक शक्तिशाली शासक चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) के नेतृत्व में था। सेल्यूकस 305 ई.पू. के लगभग सिंधु के किनारे आ उपस्थित हुआ। ग्रीक लेखक इस युद्ध का ब्योरेवार वर्णन नहीं करते। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) की शक्ति के सम्मुख सेल्यूकस को झुकना पड़ा और उसे चन्द्रगुप्त मौर्य से संधि करनी पड़ी। फलत: सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को विवाह में अपनी पुत्री हेलेना तथा एरिया (हिरात), एराकोसिया (कंदहार), परोपनिसदाइ (काबुल) और गेद्रोसिय (बलूचिस्तान) के प्रांत देकर संधि की। इसके बदले चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किए।

इस मैत्री संबंध को स्थायित्व प्रदान करने के लिए सेल्यूकस ने मेगस्थनीज नाम का एक दूत चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। यह वृत्तांत इस बात का प्रमाण है कि चंद्रगुप्त का प्राय: संपूर्ण राज्यकाल युद्धों द्वारा साम्राज्य विस्तार करने में बीता होगा।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) का साम्राज्य

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) ने  भारत के एक विस्तृत साम्राज्य पर शासन किया। इसमें लगभग संपूर्ण उत्तरी और पूर्वी भारत के साथ साथ उत्तर में बलूचिस्तान, दक्षिण में मैसूर तथा दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र तक का विस्तृत भूप्रदेश सम्मिलित था। इनका साम्राज्य विस्तार उत्तर में हिंद्कुश तक दक्षिण में कर्नाटक तक पूर्व में बंगाल तथा पश्चिम में सौराष्ट्र तक था। साम्राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी सम्राट स्वयं था। शासन की सुविधा की दृष्टि से संपूर्ण साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में विभाजित कर दिया गया था। प्रांतों के शासक सम्राट के प्रति उत्तरदायी होते थे। राज्यपालों की सहायता के लिये एक मंत्रिपरिषद् हुआ करती थी। केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन के विभिन्न विभाग थे और सबके सब एक अध्यक्ष के निरीक्षण में कार्य करते थे। साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेश सड़कों एवं राजमार्गों द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए थे।

पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) चंद्रगुप्त मौर्य की राजधानी थी जिसके विषय में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ ने विस्तृत विवरण दिए हैं। नगर के प्रशासनिक वृत्तांतों से हमें उस युग के सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को समझने में अच्छी सहायता मिलती है।

मौर्य शासन व्यवस्था की प्रशंसा आधुनिक राजनीतिज्ञों ने भी की है जिसका आधार ‘कौटिलीय अर्थशास्त्र’ एवं उसमें स्थापित की गई राज्य विषयक मान्यताएँ हैं। चंद्रगुप्त  के समय में शासनव्यवस्था के सूत्र अत्यंत सुदृढ़ थे।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) की शासन व्यवस्था

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) के साम्राज्य की शासनव्यवस्था के बारे में जानकारी मुख्य रूप से मेगस्थनीज़ के वर्णन के अवशिष्ट अंशों और कौटिल्य के अर्थशास्त्र से होती है।
राजा शासन के विभिन्न अंगों का प्रधान था। शासन के कार्यों में वह अथक रूप से व्यस्त रहता था। अर्थशास्त्र में राजा की दैनिक चर्या का आदर्श कालविभाजन दिया गया है। मेगेस्थनीज के अनुसार राजा दिन में नहीं सोता वह दिनभर न्याय और शासन के अन्य कार्यों के लिये दरबार में ही रहता है। मालिश कराते समय भी इन कार्यों में व्यवधान नहीं होता। केशप्रसाधन के समय वह दूतों से मिलता है। स्मृतियों की परंपरा के विरुद्ध अर्थशास्त्र में राजाज्ञा को धर्म, व्यवहार और चरित्र से अधिक महत्व दिया गया है।

मेगस्थनीज और कौटिल्य दोनों से ही ज्ञात होता है कि राजा के प्राणों की रक्षा के लिये समुचित व्यवस्था थी। राजा के शरीर की रक्षा अस्त्रधारी स्त्रियाँ करती थीं। मेगस्थनीज का कथन है कि राजा को निरंतर प्राणभय होता है जिससे हर रात वह अपना शयनकक्ष बदलता है। राजा केवल युद्ध, यात्रा, यज्ञानुष्ठान, न्याय और आखेट के लिये ही अपने प्रासाद से बाहर आता था। आखेट के समय राजा का मार्ग रस्सियों से घिरा होता था जिनकों लाँघने पर प्राणदंड मिलता था।

अर्थशास्त्र में राजा की सहायता के लिये मंत्रिपरिषद की व्यवस्था है। कौटिल्य के अनुसार राजा को बहुमत मानना चाहिए और आवश्यक प्रश्नों पर अनुपस्थित मंत्रियों का विचार जानने का उपाय करना चाहिए। मंत्रिपरिषद की मंत्रणा को गुप्त रखते का विशेष ध्यान रखा जाता था।

मेगेस्थनीज ने दो प्रकार के अधिकारियों का उल्लेख किया है – मंत्री और सचिव। इनकी सख्या अधिक नहीं थी किंतु ये बड़े महत्वपूर्ण थे और राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त होते थे। अर्थशास्त्र में शासन के अधिकारियों के रूप में 18 तीर्थों का उल्लेख है। शासन के विभिन्न कार्यों के लिये पृथक विभाग थे, जैसे कोष, आकर, लक्षण, लवण, सुवर्ण, कोष्ठागार, पण्य, कुप्य, आयुधागार, पौतव, मान, शुल्क, सूत्र, सीता, सुरा, सून, मुद्रा, विवीत, द्यूत, वंधनागार, गौ, नौ, पत्तन, गणिका, सेना, संस्था, देवता आदि, जो अपने अपने अध्यक्षों के अधीन थे।

मेगस्थनीज के अनुसार राजा की सेवा में गुप्तचरों की एक बड़ी सेना होती थी। ये अन्य कर्मचारियों पर कड़ी दृष्टि रखते थे और राजा को प्रत्येक बात की सूचना देते थे। अर्थशास्त्र में भी चरों की नियुक्ति और उनके कार्यों को विशेष महत्व दिया गया है। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगरशासन का वर्णन किया है जो संभवत: किसी न किसी रूप में अन्य नगरों में भी प्रचलित रही होगी। अर्थशास्त्र में नगर का शासक नागरिक कहलाता है और उसके अधीन स्थानिक और गोप होते थे। शासन की इकाई ग्राम थी जिनका शासन ग्रामिक ग्रामीणों की सहायता से करता था। ग्रामिक के ऊपर क्रमश: गोप और स्थानिक होते थे।

चन्द्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) की न्याय व्यवस्था

अर्थशास्त्र (Arth Shastra) में दो प्रकार की न्यायसभाओं का उल्लेख है: पहली दीवानी और दूसरी फौजदारी।

अदालत दंडविधान बहुत ही कठोर था। शिल्पियों का अंगभंग करने और जानबूझकर विक्रय पर राजकर न देने पर प्राणदंड का विधान था। विश्वासघात और व्यभिचार के लिये अंगच्छेद का दंड था।
मेगस्थनीज ने राजा को भूमि का स्वामी कहा है लेकिन खेतिहर भूमि का स्वामी कृषक खुद था. राज्य की जो आय अपनी निजी भूमि से होती थी उसे सीता और शेष से प्राप्त भूमिकर को भाग कहते थे। इसके अतिरिक्त सीमाओं पर चुंगी, तटकर, विक्रयकर, तोल और माप के साधनों पर कर, द्यूतकर, वेश्याओं, उद्योगों और शिल्पों पर कर, दंड तथा वन से भी राज्य को आय होती थी।

अर्थशास्त्र का आदर्श है कि प्रजा के सुख और भलाई में ही राजा का सुख और भलाई है। अर्थशास्त्र में राजा के द्वारा अनेक प्रकार के जनहित कार्यों का निर्देश है जैसे बेकारों के लिये काम की व्यवस्था करना, विधवाओं और अनाथों के पालन का प्रबंध करना, मजदूरी और मूल्य पर नियंत्रण रखना। मेगस्थनीज ऐसे अधिकारियों का उल्लेख करता है जो भूमि को नापते थे और, सभी को सिंचाई के लिये नहरों के पानी का उचित भाग मिले, इसलिये नहरों को प्रणालियों का निरीक्षण करते थे। सिंचाई की व्यवस्था के लिये चंद्रगुप्त ने विशेष प्रयत्न किया, इस बात का समर्थन रुद्रदामन के जूनागढ़ के अभिलेख से होता है। इस लेख में चंद्रगुप्त के द्वारा सौराष्ट्र में एक पहाड़ी नदी के जल को रोककर सुदर्शन झील के निर्माण का उल्लेख है।

मेगस्थनीज ने चंद्रगुप्त मौर्य के सैन्यसंगठन का भी विस्तार के साथ वर्णन किया है। चंद्रगुप्त मौर्य की विशाल सेना में छ: लाख से भी अधिक सैनिक थे। सेना का प्रबंध युद्धपरिषद् करती थी जिसमें पाँच पाँच सदस्यों की छ: समितियाँ थीं। इनमें से पाँच समितियाँ क्रमश: नौ, पदाति, अश्व, रथ और गज सेना के लिये थीं। एक समिति सेना के यातायात और आवश्यक युद्धसामग्री के विभाग का प्रबंध देखती थी। मेगस्थनीज के अनुसार समाज में कृषकों के बाद सबसे अधिक संख्या सैनिकों की ही थी। सैनिकों को वेतन के अतिरिक्त राज्य से अस्त्रशस्त्र और दूसरी सामग्री मिलती थीं। उनका जीवन संपन्न और सुखी था।

चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupt Maurya) की शासनव्यवस्था की मुख्य विशेषता सुसंगठित नौकरशाही थी जो राज्य में विभिन्न प्रकार के आँकड़ों को शासन की सुविधा के लिये एकत्र करती थी। केंद्र का शासन के विभिन्न विभागों और राज्य के विभिन्न प्रदेशों पर गहरा नियंत्रण था। आर्थिक और सामाजिक जीवन की विभिन्न दिशाओं में राज्य के इतने गहन और कठोर नियंत्रण की प्राचीन भारतीय इतिहास के किसी अन्य काल में हमें कोई सूचना नहीं मिलती।

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